________________ // 8 // // 9 // // 10 // // 11 // // 12 // // 13 // तत्तद्विकारजं वेद्यं, गोत्रं पित्तकफात्मकम् / अन्तरायः सन्निपाता-देषां विकृतिकारणम् ज्ञात्वाभ्यासान्मनोभावान्, बाबैराध्यात्मिकैस्तथा / अमीभिर्हेतुभिर्वश्यं, मनोऽवश्यमनिच्छया परमात्मा ततः साक्षात्, प्राणरूढमन:स्थितिः / मनःसाध्यो मनोध्येयो, मनोदृप्तस्समीक्ष्यते मनोवश्याय जायन्ते, ह्युपाया बहुधा जने। ज्ञाने क्रियान्विते सर्वे-न्तर्भवन्ति भवद्रूहः अज्ञानवादिनस्त्याज्या, अक्रियावादिनोऽपि च / यतो ज्ञानक्रियायुक्तः, पिण्डोयं दृश्यते न किम् संसरेत् सक्रियो जीवो, निष्क्रियोऽकर्मवान् शिवः / क्रियेन्द्रियाण्यधः पिण्डे, ज्ञानेन्द्रियाणि चोपरि ज्ञानस्य पुंसः स्थैर्याय, क्रिया प्रियास्ति सात्विको / शान्तो रसस्तया साध्यः, प्रीणनीयोऽमुना मुनिः . काये हि लक्षणं भावि, वस्तुनः स्फुरणादिना / वाच्योपश्रुतिसूक्ताद्यै-स्तथा चित्तेऽर्थभावनैः लोकानुभावेन जलं, यथा शरदि निर्मलम् / मनः सद्ज्ञानसंबद्धं, लोकालोकप्रकाशकम् प्रधानं कारणं ज्ञानं, मोक्षस्य न तथा क्रिया। अन्यलिङ्गेन किं सिद्धि- नात्साम्ये समीयुषि ऋते ज्ञानान्न मुक्ति:स्यात्, क्रियाक्लेशे महत्यपि / उद्ज्ञानं मनसःशुद्ध्या, बुद्ध्या वृद्धयाभिजायते अनित्याशरणत्वादि-लोकान्तपरिभावनैः / मनोति निर्मलं धारं, सत्प्रकाशाय जायते // 14 // // 15 // // 16 // // 17 // // 18 // // 19 // . 181