________________ // 819 // // 820 // // 821 // // 822 // // 823 // // 824 // केसराली स्वरमयीं सुधाबिन्दुविभूषिताम् / कणिकां कणिकायां च चन्द्रबिम्बात्समापतत् संचरमाणं वक्त्रेण प्रभामण्डलमध्यगम् / सुधादीधितिसंकाशं मायाबीजं विचिन्तयेत् ततो भ्रमन्तं पत्रेषु संचरन्तं नभस्तले / ध्वंसयन्तं मनोध्वान्तं स्रवन्तं च सुधारसम् तालुरन्ध्रेण गच्छन्तं लसन्तं भूलतान्तरे / त्रैलोक्याचिन्त्यमाहात्म्यं ज्योतिर्मयमिवाद्भुतम् इत्यमुं ध्यायतो मन्त्रं पुण्यमेकाग्रचेतसः / वाग्मनोमलमुक्तस्य श्रुतज्ञानं प्रकाशते मासैः षड्भिः कृताभ्यासः स्थिरीभूतमनास्ततः / निःसरन्ती मुखाम्भोजाच्छिखां धूमस्य पश्यति / संवत्सरं कृताभ्यासस्ततो ज्वालां विलोकते / ततः संजातसंवेगः सर्वज्ञमुखपङ्कजम् " परामुखपजम् स्फुरत्कल्याणमाहात्म्यं संपन्नातिशयं ततः / भामण्डलगतं साक्षादिव सर्वज्ञमीक्षते ततः स्थिरीकृतस्वान्तस्तत्र संजातनिश्चयः / मुक्त्वा संसारकान्तारमध्यास्ते सिद्धिमन्दिरं शशिबिम्बादिवोद्भूतां स्रवन्तीममृतं सदा / ' विद्यां क्ष्वी इति भालस्थां ध्यायेत्कल्याणकारणम् क्षीराम्भोधेविनिर्यान्ती प्लावयन्ती सुधाम्बुभिः / भाले शशिकलां ध्यायेत् सिद्धिसोपानपद्धतिम् अस्याः स्मरणमात्रेण त्रुट्यद्भवनिबन्धनः / प्रयाति परमानन्दकारणं पदमव्ययम् 130 // 825 // // 826 // // 827 // // 828 // // 829 // // 830 //