________________ // 807 // // 808 // // 809 // // 810 // // 811 // // 812 // एवमेव महामन्त्रं समाराध्येह योगिनः / . त्रिलोक्याऽपि महीयन्तेऽधिगताः परमां श्रियम् कृत्वा पापसहस्राणि हत्वा जन्तुशतानि च / अमुं मन्त्रं समाराध्य तिर्यञ्चोऽपि दिवं गताः गुरुपञ्चकनामोत्था विद्या स्यात् षोडशाक्षरा / जपन् शतद्वयं तस्याश्चतुर्थस्याप्नुयात्फलम् शतानि त्रीणि षड्वर्णं चत्वारि चतुरक्षरम् / पश्चावणं जपन् योगी चतुर्थफलमश्नुते प्रवृत्तिहेतुरेवैतदमीषां कथितं फलम् / . फलं स्वर्गापवर्गों तु वदन्ति परमार्थतः पञ्चवर्णमयी पञ्चतत्त्वा विद्योध्दृता श्रुतात् / अभ्यस्यमाना सततं भवक्लेशं निरस्यति मङ्गलोत्तमशरणपदान्यव्यग्रमानसः / चतुःसमाश्रयाण्येव स्मरन् मोक्षं प्रपद्यते मुक्तिसौख्यप्रदां ध्यायेद्विद्यां पञ्चदशाक्षराम् / सर्वज्ञाभं स्मरेन्मन्त्रं सर्वज्ञानप्रकाशकम् वक्तुं न कश्चिदप्यस्य प्रभावं सर्वतः क्षमः / समं भगवता साम्यं सर्वज्ञेन बिभर्ति यः यदीच्छेद्भवदावाग्नेः समुच्छेदं क्षणादपि / स्मरेत्तदादिमन्त्रस्य वर्णसप्तकमादिमम् पञ्चवर्णं स्मरेन्मन्त्रं कर्मनिर्घातकं तथा / वर्णमालाञ्चितं मन्त्रं ध्यायेत्सर्वाभयप्रदम् ध्यायेत्सिताब्जं वक्त्रान्तरष्टवर्गी दलाष्टके / ओं नमो अरिहंताणमिति वर्णानपि क्रमात् // 813 // // 814 // .. // 815 // // 816 // // 817 // // 818 // 136