________________ // 132 // . // 133 // // 134 // // 135 // // 136 // . // 137 // मोहनीयं द्विधा कर्म, व्रतसम्यक्त्वघातकम् / चारित्रावरणं कर्म, हिंसाया: कारणं मतम् दर्शनमोहनीयस्याभावात्सम्यक्त्वमुद्गतम् / ततो भक्तिजिनेन्द्रस्य, ततः पुष्पादिपूजनम् चारित्रावरणात्कर्मरूपादारम्भ उच्यते / अविरत्युदयाद्भक्तिः, सावद्यैवं स्वरूपतः धर्मद्वयं च पुष्पादौ, सचित्तेऽसारतावधः / अशक्यपरिहारोऽस्ति, भक्तौ सारतया पुनः हिंसा) न च पुष्पाणामानयनं जिनार्चने / पुष्पेषु सारता दृष्टा, सुपुष्पैर्जिनपूजनम् / पुष्पादिभ्यः सचित्तेभ्यः, पदार्था बहवो वराः / पुजा तैरेव कर्तव्या, किं सचित्तेन वस्तुना ? अविरत्युदयात्पुष्पादिकं ग्राह्यं सुभक्तितः / अन्यत्र तस्य. पुष्पादे रक्षाकृन्नास्ति कश्चन . पुष्पाणां यावतां लोके, स्याद्विषयानुबन्धतः / हिंसा संसारिणां भक्त्याऽर्हतां पुष्पार्चने न सा नवकोट्या न तत्त्यागः, श्राद्धानां देशतो व्रतम् / पूजायां नवकोट्यास्तद्धिसात्यागो जिनार्चने मणिरत्नमयी भूमिः स्वर्गेऽस्ति स्वर्गिणां कथम् / स्वर्णादौ तत्र सारत्वं, पुष्पेभ्यो हि प्रदर्श्यते पुष्पेषु शुभगन्धत्वं, सुस्पर्शत्वं सुकोमलम् / उज्ज्वलत्वं विशेषेण, चेत्यादि बहवो गुणाः तान् गुणान् प्रविलोक्यैव, पुष्पेषु श्रावका जनाः / पूजयन्ति जिनान् भक्त्या, पुष्पैरेव विशेषतः / // 138 // // 139 // // 140 // // 141 // . // 142 // // 143 //