________________ // 120 // // 121 // // 122 // // 123 // - // 124 // . // 125 // परमस्तु दयाधर्म एक एव भवन्मते / मृषावादाद्यभावो हि, धर्मो नास्ति कदाचन त्वदीयं कीदृशं ज्ञानमेषा का च विचारणा / त्वमते तु निगोदेषु, धर्मोऽस्तु नान्यजन्तुषु संसारवासिजीवानां, प्रवृत्तिर्यत्र दृश्यते / षट्कायहिंसनं तत्र, साधूनां गृहमेधिनाम् वैयावृत्त्यादिके साधोर्दानाभिगमनादिके / प्रवृत्तिः श्राद्धलोकस्य, हिंसा विना क्व दृश्यते ? अशक्यपरिहारादौ, हिंसां नैव प्रभाष्यते / साधूनां श्रावकाणां च, वैयावृत्त्यादिसेवने यतनां कुर्वतः साधोः, प्राणिनां च वधे सति / हिंसा संभाव्यते नैव, प्रायश्चित्तं पुनः पुनः सुपरिहरणीयैव, हिंसाऽस्ति जिनपूजने / सचित्तानां च पुष्पाणां, जलदीपादिवस्तूनाम् यत्र हिंसा न धर्मः स्याद्यदुक्तं च त्वया पुरा / स्वमुखेनैव हिंसायां, सत्यां धर्मो निरूपितः आत्मार्थी त्वं च चेद्भद्र !, स्वीयं वचो विचारय / यत्र हिंसा न धर्मः स्यादिति सम्यक् स्वचेतसा हिंसा स्यात्ते परप्राणपरित्यागात्मिका मते / . अशक्यपरिहारत्वं, तत्र नोक्तं त्वया पुरा यत्र हिंसा न धर्मः स्यादशक्यपरिहारतः / पूर्वापरविरोधेन, तत्र वाक्यं प्रवर्तितम् वरमस्तु मतेऽस्माकमिष्टापत्तिस्तु जायते / . एवं जानीहि पूजायामशक्यपरिहारताम् . . 321 // 126 // // 127 // // 128 // // 129 // // 130 // // 131 //