________________ // 87 // // 88 // न श्रूयते श्रुते त्वाद्यं, श्रितं श्रुतधरैर्वरैः / हेतुयुक्तियुतं यत्तच्छिनागममतं मतम् यस्य यत्राऽऽग्रहस्तत्र, स युक्ति नयतीति न / यन्निनीषतिरुक्ताऽस्मिन्, प्रस्तावेऽन्यत्र सूरिभिः आग्रही बत निनीषति युक्ति, तत्र यत्र मतिरस्य निविष्टा। पक्षपातरहितस्य तु युक्ति-यंत्र तत्र मतिरेति निवेशम् // 89 // येषां चित्ते न हेतुः स्यात्, तेषामाभाति पातिनाम् / स्पष्टं त्रिजगदीशोपि, भगवानिन्द्रजालिक: // 90 // नाऽऽगमेऽपि क्वचिद्धेतु-दृष्टान्तौ दृष्टिमागतौ / तदुक्त्या तत्र दोषश्च, हेतुवादः क्व ते गतः ? // 91 // उत्सूत्रसूत्रधारेण सुसूत्रं सूत्रितं त्वया / यत्तत्र हेतुदृष्टान्तौ, दोषाय व्यावहारिकौ . // 92 // आगमिको तु तौ तत्र, न दोषाय च तद्यथा। सत्यमेतत् श्रुतोक्तत्वा-दन्यश्रुतोक्तसत्यवत् / // 93 // लोकशास्त्रेषु कुत्राप्युक्तेऽन्यश्रुतोक्तसत्यवत् / दृष्टान्तोऽयं न दातव्य-स्तेष्वलीकं यतोऽखिलम् . निह्नवोऽनुपधानी तु, बाह्यो नाऽऽद्यदिनेप्यभूत् / चैत्यस्थितौ बलिष्ठत्वात्, भ्रष्टत्वाच्चेति मन्यते . // 95 // चैत्यपालादिकाऽत्यर्थ, निषेधं वीक्ष्य यः किल / महानिशीथं तत्याज, गोष्ठामाहिलकैतवात् // 96 // पश्चान्मत्वोपधानानि, यैर्यैरुत्थापनाऽऽदृता / मन्ये सुविहितास्ते ते, नाम्नां वसतिपालकाः // 97 // कालदौःस्थ्येऽर्कवेदेऽस्था-च्चैत्येषु प्रचुरो व्रती / पौषधोकसि वस्वभ्राभ्रकुभिः श्रूयते त्विति // 98 // 280 // 24 //