________________ // 1 // // 9 // चतुर्थः परिच्छेदः आप्तवचनादाविर्भूतमर्थसंवेदनमागमः. उपचारादाप्तवचनं च .. // 2 // यथा समस्त्यत्र प्रदेशे रत्ननिधानम्, सन्ति रत्नसानुप्रभृतयः // 3 // अभिधेयं वस्तु यथावस्थितं यो जानीते यथाज्ञातं चाभिधत्ते स आप्तः. तस्य हि वचनमविसंवादि भवति // 5 // स च द्वेधा लौकिको लोकोत्तरश्च / // 6 // लौकिको जनकादिर्लोकोत्तरस्तु तीर्थकरादिः // 7 // वर्णपदवाक्यात्मकं वचनम् / // 8 // अकारादिः पौद्गलिको वर्णः वर्णानामन्योन्यापेक्षाणां निरपेक्षा संहतिः पदम्, पदानां तु वाक्यम् // 10 स्वाभाविकसामर्थ्यसमयाभ्यामर्थबोधनिबन्धनं शब्दः // 11 // अर्थप्रकाशकत्वमस्य स्वाभाविकं प्रदीपवद्यथार्थत्वायथार्थत्वे पुनः पुरुषगुणदोषावनुसरतः // 12 // सर्वत्रायं ध्वनिर्विधिनिषेधाभ्यांस्वार्थमभिदधानः सप्तभङ्गीमनुगच्छति 13 एकत्र वस्तुन्येकैकधर्मपर्यनुयोगवशादविरोधेन व्यस्तयोः समस्तयोश्च विधिनिषेधयोः कल्पनया स्यात्काराङ्कितः सप्तधा वाक्प्रयोगः सप्तभङ्गी 14 तद्यथा-स्यादस्त्येव सर्वमिति विधिकल्पनया प्रथमो भङ्गः // 15 // स्यानास्त्येव सर्वमिति निषेधकल्पनया द्वितीयः // 16 // स्यादस्त्येव स्यान्नास्त्येवेति क्रमतो विधिनिषेधकल्पनया तृतीयः 17 // स्यादवक्तव्यमेवेति युगपद्विधिनिषेधकल्पनया चतुर्थः // 18 // 102