________________ यथा शुक्तिकायामिदं रजतमिति // 10 // साधकबाधकप्रमाणाभावात् अनवस्थितानेककोटिसंस्पर्शिज्ञानसंशयः॥११ यथा अयं स्थाणुर्वी पुरुषो वेति // 12 // किमिति आलोचनमात्रमनध्यवसायः // 13 // यथा गच्छतस्तृणस्पर्शज्ञानम् // 14 // ज्ञानादन्योऽर्थः परः // 15 // स्वस्य व्यवसायः स्वाभिमुख्येन प्रकाशनम्, बाह्यस्येव तदाभिमुख्येनकरिकलभकमहमात्मना जानामीति // 16 // कः खलु ज्ञानस्यालम्बनं बाह्यं प्रतिभातमभिमन्यमानस्तदपि तत्प्रकारं नाभिमन्येत मिहिरालोकवत् // 17 // ज्ञानस्य प्रमेयाव्यभिचारित्वं प्रामाण्यम् // 18 // तदितरत्त्वप्रामाण्यम् // 19 // तदुभयमुत्पत्तौ परत एव ज्ञप्तौ तु स्वतः परतश्चेति // 20 // . द्वितीयः परिच्छेदः तद् द्विभेदं प्रत्यक्षं च परोक्षं च // 1 // स्पष्टं प्रत्यक्षम् // 2 // अनुमानाद्याधिक्येन विशेषप्रकाशनं स्पष्टत्वम् // 3 // तद् द्विप्रकारकं सांव्यवहारिकं पारमार्थिकं च तत्राद्यं द्विविधम् इन्द्रियनिबन्धनमनिन्द्रियनिबन्धनं च // 5 // एतद् द्वितयमवग्रहेहावायधारणाभेदादेकशश्चर्तुविकल्पकम् // 6 // विषयविषयिसन्निपातानन्तरसमुद्भूतसत्तामात्रगोचरदर्शनाज्जातमाद्यमवान्तरसामान्याकारविशिष्टमर्थग्रहणमवग्रहः // 7 // अवगृहीतार्थविशेषाकाङ्क्षणमीहा // 8 // ईहितविशेषनिर्णयोऽवायः॥९ स एव दृढतरावस्थापन्नो धारणा // 10 // // 4 // 63