________________ मिच्छत्तमोहमूढो जाव तुमं कत्थ कत्थ न हु भमिओ? / छेयण-भेयणफ्मुहं किं किं दुक्खं न पत्तो सि ? // 576 // जइ इच्छसि सिद्धिपुरं गंतुं संसारसायरं तरिउं / ता जीव ! तिविहतिविहं सव्वं मिच्छं विवज्जेहि . // 577 // जह धन्नाणं पुहवी आहारो, नहयलं व ताराणं / तह नीसेसगुणाणं आहारो होइ सम्मत्तं // 578 // सम्मद्दिट्ठी जीवो गच्छइ नियमा विमाणवासीसु / जइ न विगयसम्मत्तो अहव न बद्धाउओ पुव्विं // 579 // अंतो मुत्तमित्तं पि जेहिं पत्तं कया वि सम्मत्तं / तेसिं अवड्ढपुग्गलपरियÉतो य संसारो // 580 // लब्भंति अमर-नरसंपयाओ सोहग्ग-रूवकलियाओ। न य लब्भइ सम्मत्तं तरंडयं भवसमुद्दस्स // 581 // मा कुणसु ता पमायं सम्मत्ते तुडिवसा कह वि पत्ते / सग्गाऽपवग्गसंसग्गकारणे निमिसमित्तं पि // 582 // आराहणकामेणं जत्तेणं वायणाइपंचविहो / सज्झाओ कायव्वो खवगेणं परमपयहेऊ // 583 // एत्तो सव्वनुत्तं तित्थयरत्तं च जायइ कमेण / इय परमं मुक्खंगं सज्झाओ झाणहेउ त्ति // 584 // नाणमकारणबंधू नाणं मोहंधयारदिणबंधू / ' नाणं संसारसमुद्दतारणे बंधुरं जाणं // 585 // नाणेण सव्वभावा नजति सुहुम-बायरा लोए / तम्हा नाणं कुसलेण सिक्खियव्वं पयत्तेणं // 586 // तं नत्थि जं न पासइ सज्झायविऊ पयत्थपरमत्थं / . गच्छइ य सुगइमूलं खणे खणे परमसंवेगं // 587 //