________________ // 456 // // 457 // // 458 // // 459 // // 460 // // 461 // ईशानां गुणनाशेऽपि, गुणख्यातिरनश्वरी / यमध्वंस्यपि विख्यातो, महादेवो महाव्रती साक्षरैः सममारब्ध,-मत्सराः स्युनिरक्षराः / वाग्देव्यां वहते वैरं, न कि गोविन्दगेहिनी ? वासदोषः सखेऽवश्यं, शुद्धात्मन्यपि जायते / जाड्यं जडनिवासित्वाद्, द्विजराजेऽप्यभून किम् ? न हृष्यन्त्यसितात्मानः, संपत्तौ सुकृतात्मनाम् / मुद्रिते काकपाकानां, द्विजराजोदये दृशौ पापिनां पापिभिः साकं, सङ्गः सङ्गतिमङ्गति / वयस्य ! पश्य मातङ्गैः, सङ्गतान् मधुपानिमान् अनधीतवाङ्मयानां, वक्रा भवति पद्धतिः / यदश्रुतय एवेह, यान्ति जिह्मा दिवानिशम् धने स्वल्पेऽपि तुङ्गानां, धनित्वख्यातिरद्भुता। . ऐश्वर्यश्रुतिरेकस्मिन्, वृषभे वृषभेशितुः अचेतनेनैव प्रीति-प्रवृत्तिर्धनिनां ध्रुवम् / किं स्थाणुना समं मैत्री, धनाधीशस्य नाऽभवत् ? रतिर्जडजुषां नीच,-मिलनेऽप्यतिशायिनी / न किं गोपकराश्लेषात्, पद्मिनी प्रीतिमत्यभूत् ? धत्ते धनवति प्रीति, सदोषेऽपि महाजनः / . . व्यधान्मैत्री कुबेरेऽपि, धनाधीशे महेश्वरः अधनित्वे सति प्रायः, स्त्रीः कुरूपैति वेश्मनि / दिग्वासाः प्राणिताधीशः, काली देहे च गेहिनी महस्विनां महोहान्यै, मिलित: स्यात् खलः खलु / द्विजिह्वदर्शनादासीत्, प्रदीप दीप्तिमन्दता . 55 // 462 // // 463 // // 464 // // 465 // // 466 // // 467 //