________________ // 96 // . // 97 // // 98 // // 99 // // 100 // // 101 // इति ज्ञात्वा बुधैनित्यं स्वात्मनो हितवाञ्छया। .. अविद्या दूरतस्त्याज्या न श्रोतव्या कदाचन / सर्वज्ञोक्ता तु सद्विद्या भवविच्छेदकारणम् / सैव सेव्या सदा सद्भिर्मोक्षमार्गप्रदायिका सत्त्वं रजस्तमश्चेति शरीरान्तर्गुणत्रयम्।। रजस्तमश्च संत्यज्य सत्त्वमेकं समाश्रयेत् सत्त्वं सर्वगुणाधारं सत्त्वं धर्मधुरन्धरम्। , संसारनाशनं सत्त्वं सत्त्वं स्वर्गापवर्गदम् निरालम्बे निराकारे सदानन्दास्पदे शुभे। सतां ध्यानमये सौधे सत्त्वं स्तम्भो दृढो मतः यथा वह्निलवेनापि दयन्ते दारुसंचयाः। , कर्मेधनानि दह्यन्ते तथा ध्यानलवेन तु यथा वा मेघसंघाता प्रलीयन्तेऽनिलाहताः / शुक्लध्यानेन कर्माणि क्षीयन्ते योगिनां तथा यः सदा स्नाति योगीन्द्रो ध्यानस्वच्छमहाजले। लक्षमेकं कथं तिष्ठेत् तस्मिन् कर्मरजोमलः न लगेत्पद्मिनीपत्रे यथा तोयं स्वभावतः / पाषाणो भिद्यते नैव जलमध्ये स्थितो यथा स्फटिको मलिनो न स्यात् रजसाच्छादितो यथा / न लिप्यते तथा पापैरात्मा सद्ध्यानमाश्रितः शुक्लध्यानसमायोगाद् ब्रह्मविद् ब्रह्मणि स्थितः / भूमिस्थोऽपि भजेद्योगी शाखाग्रफलमुत्तमम् .. मुक्तिश्रीपरमानन्दध्यानेनानेन योगिना। रूपातीतं निराकारं ध्यानं ध्येयं ततोऽनिशम् // 102 // // 103 // // 104 // // 105 // // 106 // // 107 // 350