________________ // 84 // // 85 // // 86 // // 87 // // 88 // // 89 // सर्वारम्भपरित्यागात् चित्ते समरसंगते / सा सिद्धिः स्यात्सतां या नो सर्वतीर्थावगाहने विद्यमाने परे मूढा योगे शमरसात्मके। योगं योगं प्रकुर्वाणाः संभ्राम्यन्ति दिशोदिशम् तावद्वर्णविशेषोऽस्ति यावद्ब्रह्म न विन्दति / संप्राप्ता परमं ब्रह्म सर्वे वर्णा द्विजातयः धर्ममार्गा घनाः सन्ति दर्शनानां विभेदतः / मोक्षार्थं समतां यान्ति समुद्र सरितो यथा गवामनेकवर्णानामेकवर्णं यथा पयः / षड्दर्शनमार्गाणां मोक्षमार्गस्तथा मतः संकल्पकल्पनामुक्तं रागद्वेषविवर्जितम् / सदानन्दलये लीनं मनः समरसं स्मृतम् अतीतं च भविष्यच्च यन्न शोचति मानसम्। . तं सामायिकमित्याहुनिर्वातस्थानदीपवत् निःसङ्गं यन्निराभासं निराकारं निराश्रयम् / पुण्यपापविनिर्मुक्तं मनः सामायिकं स्मृतम् गते शोको न यस्यास्ति न च हर्षः समागते / शत्रुमित्रसमचित्तं सामायिकमिहोच्यते यत्प्रसर्पति लोकेऽस्मिन् शास्त्रे कुकविभि: कृतम् / अविद्या सा विनिर्दिष्टा समताभ्रमकारणम् यथा रात्रौ तमोमूढा नैव पश्यन्ति जन्तवः / नैवेक्षते तथा तत्त्वमविद्यातमसावृत्ताः मोहमायामयी दुष्टा साधूनां मोक्षकाङ्क्षिणाम् / मुक्तिमार्गार्गला नित्यमविद्या निर्मिता भुवि // 90 // // 91 // // 92 // // 93 // // 94 // // 95 // . .. 346