________________ जिनाङ्गपूजनं भक्त्या यः करोति करः सदा।. स एव सफलो देहे चान्यथा विफलायते // 344 // सम्यक्त्वधारिभिर्देवैनरैश्चापि सुभावतः / क्रियते देवपूजाऽत्र तिर्यग्भिर्न च नारकैः // 345 // अघौघभेत्री किल देवपूजा विशुद्धिहेतुः किल सैव लोके / जनैस्ततः सैव सदा विधेया विहाय हेयं भवदायि यच्च // 346 // कालः प्रयाति प्रतिजन्म येषां भक्त्याऽपचित्या जिनपुङ्गवानाम् / धन्या इमे धन्यतमोऽपि वंशो मोक्षोऽपि तेषाङ्करपल्लवस्थः // 347 / / सद्भावनातोऽत्र सदा मनुष्यै-रर्चा विधेया जिनपुङ्गवानाम् / सुर्याभवद्या क्रमशो जनानां, मोक्षश्रियं सद्गुणमातनोति // 348 // विना भृत्यैर्यथा राज्ञां न कार्यञ्चलति स्फुटम् / गुरुं विना तथा लोके न ज्ञानञ्जातु जायते // 349 // घनध्वान्तगतं वस्तु प्राकाश्यं नयते यथा / दीपस्तथा पदार्थानां तत्त्वं बोधयते गुरुः // 350 // न केषाङ्कुरुते हिंसां न मिथ्याभाषणन्तथा। . न स्तेयं भामिनीभोगं स गुरुर्गुरुरुच्यते // 351 // न दोघेहो न वा दम्भी न स्वर्णादिपरिग्रही। न व्यापारी दुराचारी न रात्रिभोजनप्रियः // 352 // संग्रही न च धान्यानां न परानर्थचिन्तकः / न पञ्चविषयासक्तो न परच्छिद्रवीक्षकः // 353 // सर्वथा त्यागशीलश्च सर्वथा ब्रह्मधारकः / एतादृक्षश्च संसेव्यः सद्गुरुर्भवतारकः // 354 // गुरुः पिता गुरुर्माता गुरुर्बन्धुः सखा सुहृत् / गुरुरेव सदा सेव्यः संसारार्णवतारक: // 355 // 240