________________ // 242 // बहवो विजहुः प्राणान् मृगयाव्यसनाकुलाः / राजानो राजपुत्राश्च लुब्धकानान्तु का कथा ? // 239 // आखेटवृत्तिजीवानां व दया परजीविषु? / छिन्दन्ति परगात्राणि धान्यानीव च कार्युकाः // 240 // द्रोहो हत्या गुरोनिन्दा मृगव्यं मांसभक्षणम् / वेश्यासङ्गः सुरापानं लाम्पट्यं परयोषिति // 241 // विश्वासघातता लोके कृतघ्नत्वन्तथैव च / अमूनि श्वभ्रहेतूनि ज्ञेयानि सूक्ष्मबुद्धिभिः आच्छोटनमतस्त्याज्यं सुखाभिलाषिणा सदा / अन्यथा न विपद्दूरमजपुत्रादिवद् भुवि // 243 // तृणाग्रबिन्दूपमदेहमेनं ज्ञात्वा न कस्यापि वधो विधेयः / सुखं न दृष्टं न च सद्गतिश्च हिंसारतानामिह मानवानाम् // 244 // परस्वञ्चोर्यते येन कुत्सितेन च कर्मणा / तत्कर्म चौर्यमित्याहुः फलञ्च नरकावनिः // 245 // कलको नितराञ्चौर्यं सत्कुलेन्दौ विगर्हितम् / वधबन्धनमूलञ्च चौर्यमेव विभाव्यताम् // 246 // यमदूता इव प्रायः पथि चौरान् सशृङ्खलान् / . मयन्ति राजनिर्देशं राजभृत्याश्च पश्यताम् // 247 // स्वयञ्चौरस्तस्य मित्रं स्थानदो रक्षकस्तथा। . . व्यापारी सह चौरेण तस्करः पञ्चधा स्मृतः // 248 // विलसन्ति गुणाः प्रायश्चौरे चैते विलक्षणाः / सद्गुणा यैश्च लुप्यन्ते वज्रेणेव गिरिवजाः // 249 // आनिष्ट्यं निर्दयत्वञ्च कठोरवचनन्तथा। . क्रौर्य शाठ्यञ्च धाष्र्यञ्च निर्भयत्वञ्च धूर्तता // 250 // 231