________________ कलहे प्रीतिविच्छेदः कलहे दुःखसन्ततिः। . कलहे किल्बिषस्तोमः कलहे विपदः खला: / / 137 // कलहविषपानेन स्वयं मूर्च्छञ्जनोऽपरान् / मूर्च्छयत्यत्र हा कष्टं विचित्रोऽस्य पराक्रमः // 138 // कलहो विद्यते यत्र कलिस्तत्रैव नृत्यति / सरीसति रमा दूरं नरीनर्ति विपत्तिका . // 131 // क्लेश एव खलो लोके स्वपरानर्थहेतुकः। भुजङ्गो विषवल्लीव तप्तरेणुक्षितीव वा ' // 140 // कंसोऽपि भूपान्वयलब्धजन्मा, सङ्ग्रामतः प्रांप यशोऽतिसौख्यम् / जज्ञे परञ्जीववशाऽस्य जामिर्यद्योगतो वंशयुगस्य नाशः // 141 // आख्यानमभितोऽन्यस्य मिथ्यापवाददानतः / अभ्याख्यानञ्च तत्प्रोक्तं त्याज्यमेव बुधैः सदा // 142 // अभ्याख्यानं महादोषो मन्ये दोषेषु सज्जनाः / यस्येहारोपतो जीवो भिनत्ति पुण्यसन्ततिम् // 143 // द्विचन्द्रं नेत्ररोगेण यथा पश्यति कश्चन / जिह्वादोषेण रोगाणां केन वार्यः समुद्भवः यथाऽधर्मो न वा कार्यो विचारशालिमानवैः / अभ्याख्यानन्तथा वाच्यं न कदा कस्य लघ्वपि // 145 // रोगो वह्निःस्तोकतो वृद्धिमेति, तद्वत्क्लेशो योगतो याति वृद्धिम् / काप्येवं वृद्धितां याति नित्य-मभ्याख्यानात्प्रत्यपायो महांश्च।।१४६।। निन्दको हि यथा पुंसु काकश्च पक्षिषु यथा। तथा कर्मसु कर्मापि चाभ्याख्यानं हि गर्हितम् . // 147 // पराऽपवाददोषो हि महानर्थकरो भुवि।। त्यक्ता रामेण सा सीता रजकोक्तिमिषान्न किम् ? // 148 // . // 144 // 22