________________ द्वेषेण वर्द्धते कर्म द्वेषेण वर्द्धते रिपुः / द्वेषेण वर्द्धते क्लेशो द्वेषः सर्वक्षयङ्करः / // 125 // द्वेषवह्निञ्च यो मूढः प्रज्वाल्य सुखमिच्छति / उदधेः पारयायीव पाषाणेन विनश्यति // 126 // उपाय: कालकूटस्य रोगाणामपि विद्यते / द्वेषकृशानुनाशाय विद्यते न च साधनम् // 127 // यत्र पुंसि पुरा रागो गुणज्ञोऽयं सखा मम / सति द्वेषे च तं हन्ति कामिनीव प्रियम्पतिम् // 128 // द्वेषदावानलज्वाला भस्मसात्कुरुतेऽखिलम् / निःस्वीभूय ततो द्वेषी सहते कष्टसन्ततिम् // 129 // तेनैव कौरवा जाता नामशेषाः परेऽपि च। द्वैपायनेन तेनैव दग्धा सा द्वारिका बरा // 130 // कल्याणपाथोधिविलासबुद्धिोहं विदध्यान्न च कैः सहात्र / प्रीत्या चरन् भद्रशतानि पश्यन्नन्ते गति यातु समीहितां सः // 131 // कलते कालयत्यत्र कलयत्यथ सद्गुणान् / कलहश्च विजानीयुः प्रीतिविच्छेदकारकम् // 132 // सत्यशीलोऽपि देवर्षिः कलहमूलतो भुवि / कलहापयशो लेभे धिक्कलि कीर्तिनाशनम् // 133 // कलहान्तरिता भार्या पुमान् वा यत्र सद्मनि / सद्य एव च तन्नाशो नदीतीरजवृक्षवत् // 134 // कलहः सर्वदोषाणां मूलमस्ति धरातले। अजीर्णमिव रोगाणां निदानमादिमं मतम् // 135 // कलहोऽपि महादोषः सत्स्वपि गुणसशिषु / क्षारमब्धौ निशानाथे कलङ्क: केन लुप्यते ? // 136 // 221