________________ // 115 // // 116 // // .117 // // 118 // // 119 // मद्यपायीव लोभात्मा कुलं शीलं न पश्यति। . गणयेन्नापि शिष्टान् स बन्धूनपि न मन्यते . राकाविधुञ्जलनिधेरिव वीक्ष्य दिव्यम्, वृद्धि यथोमय इह प्रतियान्ति तद्वत् / लोभोऽपि वित्तनिचयं परिवर्द्धतेऽत्र, . ज्ञेयोऽत्र मम्मणधनी तकमुख्यहेतुः प्रतिबध्नाति यः प्रेम स्वाभीष्टवस्तुसन्ततौ। रागोऽयम्बुध्यतां विज्ञैर्नीलिमेव पटादिषु . विचित्रः खलु रागोऽयं रज्जुतोऽपि विशिष्यते / तया च मुच्यते प्राणी नानेन मरणेऽप्यहो कण्टकेनापि दूयन्ते भयेन लघुना तथा। नार्यो यास्तेन सोत्कण्ठा भर्तारमनुयान्ति वै' राजानमनुगच्छन्ति यथा भृत्यादयः पुरात् / तथा रागेण संयान्ति देहतश्चाक्षवृत्तयः / गुणिनि निर्गुणे वाऽथ रागो वस्तुनि जायते। आसज्जयति तत्रैनञ्जीवं त्यक्त्वा च गौरवम् अन्यासक्तमना रागी पूर्वमैत्रीं विहाय च। द्वेषकरोति तद्धानि वाञ्छति च दिने दिने तप:शीलं धर्मं सुचिरकृतमैत्री निजयशः, तथा प्रीति रागी त्यजति परदारादिविकलः / विधत्तेऽथ द्वेषं दहति हृदये वीक्ष्य परकमतो दुःखी लोके कनकरथवद्याति निधनम् स्वार्थमाश्रित्य यो द्वेष्टि भिन्दन्कीर्तिलतामलम् / . येन द्वेषः स विज्ञेयो महानर्थकरो भुवि 220 // 120 // // 121 // // 122 // // 123 // // 124 //