________________ यत्रापि नानुमानं क्रमते ननु मादृशस्य मन्दमतेः / बहुधा दृष्टावञ्चनजिनवचनात्तदपि निश्चेयम् / // 40 // लोकोऽपि सत्यवादं संवादाद्वादिनं विनिश्चित्य / सन्दिग्धेऽर्थे साक्षिणमङ्गीकुरुते प्रमाणतया // 41 // न च भगवतोऽस्ति किञ्चन वञ्चनवचने निमित्तमित्युक्तम् / 'जिनवचनं पुनरेतन्निश्चितमाप्तोपदेशादेः // 42 // आप्तपरम्पपरया स्याद् ग्रन्थेनान्येन वचनसाम्येन / सन्दिग्धार्थे वचने क्वचन जिनोक्तत्वनिश्चयनम् // 43 // लोकेऽपि श्लोकादौ विपश्चितः कर्तृनिश्चिति केचित् / दृश्यन्ते सादृश्यात्] कुर्वन्तो वचनपरिचित्या // 44 // धर्मास्तिकायमुख्यं कथञ्चिदप्यस्तु वस्तु किं तेन / कृत्याकृत्यं चिन्त्यं सुचेतसा पुण्यपापादि // 45 // तत्रास्ति कर्म चित्र विचित्रफलसमुपलम्भतोऽनुमितम् / जातं हेतोः सदृशान्न दृश्यते विसदृशं कार्यम् // 46 // स्याज्जातरूपजातो न राजतो जातु जातुषो वापि। वलयादिरलङ्कारस्तच्चित्राज्जायते चित्रम् // 47 // एकजनकादिजनितौ स्त्रीपुंसौ यमलको प्रसाधयतः / भिदुरायुःसौभाग्यादिभागिनों भेदकं कर्म . // 48 // रजतस्थालिस्थापितनिर्मलजलजातजन्तुजातं च / विविधतनुजातिवर्णं वर्णयति नियामकं कर्म // 49 // समेऽपि व्यापारे पुरुषयुगलस्यामलधियः समाने कालादौ सकलगुणसाम्ये समजनि / यदेकस्यानर्थः प्रकटमितरस्यार्थनिचयो विनिश्चयं कर्म स्फुटतरमितोऽस्तीत्यनुमितेः // 50 // 11