________________ // 125 // // 126 // // 127 // // 128 // // 129 // चौरस्य पञ्च चिह्नानि, भ्रमद्दृग् चञ्चलाननः। वस्त्वासक्तमना व्यग्र, इतस्ततो निरीक्षणम् / भयं भिक्षो वधो दण्ड: शृङ्खलापदबन्धनम् / शूलिकारोपणं मृत्युः, फलानि चौरकर्मणः ज्ञातातो विजयस्य चोर्यकरणं संसारसंप्लावनं, . चान्यस्माद्वसुभूतितस्करकथां श्रुत्वा त्यज दूरतः / .. यत्पुण्यं भज रौहिणेयक इव प्रौढं सुखं लिप्ससे, नो चेदुर्गतियातनाफलमिदं भुव स्वकर्मोदयात् नित्यं मनोवच: काय, यः परस्त्रीषु लम्पटः / सहते स हि दुःखं च, श्वभ्रे ताडनादिकम् रणे फलेच्च वृक्षश्चेत्, सुयशः स्यात्कुकर्मणः / कुवाक्याच्छं लभते य-त्तदा परस्त्रियः सुखम् इन्द्रधनुः कराऽस्पृक्च न वशः पवनो यथा / तथा दुर्गाह्यमेव स्यात्, परस्त्रीहृदयं सदा लोके दुर्ग्रहता ख्याता, या सार्धसप्तवार्षिका / परस्त्री सैव विज्ञेया, यतः प्राप्नोति चापदम् त्यजेत्सुखार्थी परदारसङ्गं, नो चेत्स पद्मोत्तरवद्भवेच्च / मतान्तरे गौतमतापसस्य, दारानुरागादभवद्रवेः किम् भवेयुः प्राणिनः पापात् कासश्वासज्वरादयः / सखायोऽपि कदर्याश्च, नागश्रीवन्महीतले अमृतं कालकूटं स्या-न्मित्रं शत्रुःसुधीरधीः / सज्जनो दुर्जनः पापा- द्विपरीतं फलं त्विह गुणश्च दोषतां याति, पापतो हृच्च शून्यताम् / ज्ञानमज्ञानतामेव, भ्रमरोगादि देहिनः 132 // 130 // // 131 // // 132 // // 133 // // 134 // // 135 //