________________ // 425 // // 426 // // 427 // . // 428 // // 429 // // 430 // यथेन्द्रजालं स्वप्नो वा, बालधूलिगृहकिया। मृगतृष्णा चेन्द्रधनुः, तथा सांसारिकी स्थितिः . श्रीजिनाश्चक्रिणो रामा, विष्णवः प्रतिविष्णवः। महर्षयोऽपि कर्माग्ने छूटन केऽपरे नराः सत्वशाली हरिश्चन्द्रः, सत्यसन्धो युधिष्ठिरः / पुण्यश्लोको नलो न्यायी, रामोऽप्यास्कन्दि कर्मणा कुर्वन्ते जन्तवः कर्म, स्वयमेव शुभाशुभम् / तत्फलं सुखदुःखं च, भुज्यते तत्परेण किम् ? परेषु रोषतोषाभ्यां, कार्यसिद्धिर्न काचन / . रुष्यते तुष्यते प्राज्ञैस्तस्मात्स्वकृतकर्मसु कोऽपि कस्यापि नो सौख्यं, दु:खं वा दातुमीश्वरः / आरङ्कशकं लोकोऽयं भुङ्क्ते कर्म निजं निजम् कर्मकुम्भकृता तावत्, मृत्पिण्डा इव जन्तवः / भ्राम्यन्ते भवचक्रेऽमी, यावत्पात्रीभवन्ति न तावत्कर्मकशाक्षिप्त-श्चतुर्गतिभवभ्रमी। जीवाश्वो नाश्नुते यावत्, स्वशक्त्या पञ्चमी गतिम् दुष्कर्मदोषतो दुःखी, मूर्खस्तदपि तत्प्रियः / दोषज्ञस्तदपोहाय, कामं सत्कर्मकर्मठः श्रृङ्गारार्हकृति-स्नेह-गीत-नाटक-नर्तनैः / भोजनोत्सवचीरादौ, प्रबोधः कर्मलाघवात् दानं देवार्चनं ध्यानं, दमो दीक्षा तपः क्रिया। कुर्वतामपि केषाञ्चित्, पातः स्यात्कर्मगौरवात् श्रीसम्पूर्णो जयस्फूर्जद्भुजः सुन्दरविग्रहः / / भूरिवर्ण्यगुणग्रामः, पुमान् सत्कर्मणा भवेत् // 431 // // 432 // // 433 // // 434 // // 435 // // 436 //