________________ // 258 // // 259 // // 260 // // 261 // // 262 // (अत्र त्रय श्लोका हस्तलिखितादर्श न प्राप्ता) शुदिचन्द्र इव स्नेहः, प्रत्यहं वर्धते सताम् / वदिचन्द्र इवान्येषां, हानि याति दिने दिने राकाचन्द्राष्टमीचन्द्र-द्वितीयाचन्द्रवत् क्रमात् / स्त्रीपुंसोः प्रेम संपूर्ण-मध्यमस्वल्पपुण्ययोः चन्द्रः सतन्द्रः सूरोऽपि, दूरो भवति यत्प्रति। तत्प्रदीपस्तमो हन्ति, पात्रस्नेहदशोज्ज्वलः स्वार्थस्नेहापि सा माता, भ्राता जाया सुतः सुहृत् / वैधुर्ये विघटन्तेऽमी, धर्मो बन्धुरयं ध्रुवः परोपकारः कर्तव्यो, धनेन वचमेन वा। शक्त्या युक्त्याथवा यस्मात्, कृत्यं नातः परं सताम् तैलक्षेपो यथा दीपे, जलसेको यथा द्रुमे / उपकारस्तथान्यस्मिन्, स्वोपकाराय कल्पते यथेन्दोः कौमुदी भानोः, प्रभा जलमुचो जलम् / महतामिह सम्पत्तिः, परोपकृतये तथा शत्रुभिर्विग्रही मित्र-संग्रही खलनिग्रही। सज्जनानुग्रही न्याय-ग्रही पञ्चग्रही महान् महान् कस्यापि नो वक्ति, स्वगुणं परदूषणम् / स्वमहिम्नैव सर्वत्र, मान्यते रत्नवत् पुनः यः सम्पद्यपि नोन्मादी, न विषादी विपद्यपि / परात्मसमसंवादी, स महान्मानवो मतः दुर्जनोदीरितैर्दोषै-र्गुणैर्मार्गणवर्णितैः / असतीदर्शितस्नेहै:, समानं महतां मनः // 263 // // 264 // // 265 // // 266 // // 267 // // 268 // 100