________________ उचिते देशे गत्वा संस्तरकोत्तरपटावथ प्रेक्ष्य / संयोज्यं च जानू-परि संस्थाप्य भुवं प्रमार्जयति // 353 // तत्तत्रास्तीर्य मुनिः करयुगलं न्यस्य भणतीदम् / "अणुजाणह निसीही णमो खमासमणपुज्जाणं" // 354 // अथ संस्तरके स्थित्वा प्रेक्ष्याऽस्य पटं त्रिवेलमुच्चार्य / स नमस्कारं सामायिकं ततो वामपार्वे च // 355 // उपधानीकृतबाहुः पादौ कुर्कुटीवदाकुञ्च्य / . असमर्थो भूमितलं प्रमृज्य विधिना प्रसारयति // 356 // किल कुर्कुटी-प्रसूताऽपत्यत्राणाय पादयुग्ममपि / / आकुञ्च्य स्वपिति सदा यदा तु पादौ परिक्लान्तौ // 357 // गगने तदा पुनरपि प्रमाप संस्थापयेत् प्रयत्नेन / कुर्कुट्या दृष्टान्तं तथाऽनगारो मनसिकृत्य // 358 // परितान्तौ निजचरणा-वुत्पाट्य स्थापयेद् गगनभागे / प्रतिलिख्य पदस्थानं तत्र स्थापयति यत्नेन // 359 // सुप्तो यावज्जागति तावदाध्यात्मिकः शुभध्यायी / निद्रामोक्षं कुरुते मुहूर्तमेकं विशुद्धात्मा // 360 // स्थविरा द्वितीययामं सूत्रार्थविभावनेन निःशेषम् / अतिवाह्य स्थिरहदयाः प्राप्ते यामे तृतीयेऽथ // 361 // गृह्णन्ति चार्द्धरात्रिक-कालं गुरवस्ततो विबुध्यन्ते / पूर्वोदितेन विधिना स्थविरा निद्रां प्रकुर्वन्ति // 362 // उद्वर्तना-परावर्तना यदि च कुर्वते तदा मुनयः / प्रथमं शरीरकं प्रति-लिखति पश्चाच्च संस्तरकम् // 363 // कृत्वा शरीरचिन्ता-मीर्यापथिकीप्रतिक्रमणपूर्वम् / . कुर्वन्ति स्वाध्यायं गाथात्रयमानमधिकं वा // 364 // 15