________________ भोजनकाले निहिता शरावमुख्येषु सोद्गृहीता स्यात् / / प्रगृहीता तु यदशितुं प्रदातुमथवा करे कुरुते // 257 // यन्न द्विपदप्रमुखाः काङ्क्षन्त्यथवा भवेत् परित्यज्यम् / अर्द्धत्यक्तं यदि वा सोज्झितधर्मा भवेद्भिक्षा // 258 // पिण्डैषणावदेवं ज्ञेया पानैषणापि सप्तविधा / केवलमिहाल्पलेपा सौवीराचाम्लकप्रमुखा // 259 / / आदाय मधुपवृत्त्या पिण्डं वसतौ प्रविश्य गुरुपुरतः / नैषेधिकीतिजल्पन्नीर्यापथिकी प्रतिकामेत् // 260 // कायोत्सर्गे भिक्षाऽतिचारजातं विभाव्य निःशेषम् / गमनागमने आलोचयेत्तथा भक्तपानादि // 261 // तदनु दुरालोचितभक्तपानशोधननिमित्तमुच्चार्य / / गोचरचर्यादण्डक-मुत्सर्गे चिन्तयदेवम् // 262 // "अहो जिणेहिं असावज्जा वित्ती साहूण देसिया / मुक्खसाहण हेउस्स साहुदेहस्स धारणा" // 263 // उद्द्योतपठनपूर्वं प्रत्याख्यानस्य पारणं कुर्यात् / तदनु रजोहरणेन प्रमार्जयेन्मौलिभालतलम् // 264 // मुक्ते पात्रेऽपरथा स्वेदः सम्पातिमादि वा पतति / प्रेक्ष्य भवं मण्डल्यां पात्रं मुक्त्वा स्तुयाद्देवम् // 265 // कुर्याज्जघन्यतोऽपि स्वाध्यायं श्लोकषोडशकमानम् / विश्राम्येत्तत्क्षणमथ देहे तप्तेऽन्यथा रोगः // 266 // बाहुमुनि-मूलदेवक्षत्रियधृतवस्त्रपुष्पमित्राणाम् / चरितानि मनसि कृत्वा विदधीत च्छन्दनां यतीनाम् // 267 // बालग्लानादीनां कुर्वीत च्छन्दनां विशेषेण / प्रतिलिख्य वदनमाननपढेन लघुवन्दनं दद्यात् .. // 268 // 148