________________ // 245 // // 246 // // 247 // // 248 // // 249 // // 250 // द्वावासुरौ च भागौ ग्लानत्वं स्यात्तयोस्तदुपभोगे / मध्यो राक्षससंज्ञस्तस्मिन् मृत्युं विजानीहि . मूल्यमनगारवस्त्रस्याष्टादशरूपका जघन्येन / उत्कर्षेण तु रूपकलक्षं स्यान्मध्यमं शेषम् तुम्बमयं दारुमयं पात्रं मृत्स्नामयञ्च गृह्णीयात् / यदकल्प्यं कांस्यमयं ताम्रादिमयञ्च तत् त्याज्यम् वर्णाढ्ये ज्ञानं सु-प्रतिष्ठिते पात्रके प्रतिष्ठा स्यात् / व्रणरहिते (च) कीर्तिकल्पना मता संश्रुतेर्लाभ: कुण्डे चरित्रभेदः शबले मतिविभ्रमो भवेत्पात्रे / अन्तर्बहिश्च दग्धे मृत्युं तस्मिन् विजानीहि पद्मोत्पले त्वकुशलं व्रणं पुनस्सवणे विनिर्देश्यम् / स्थानं न गणे चरणे चतुष्पदे स्थाणुसंस्थाने - सौवीरमम्लकणधावने तथोष्मोदकं च गृह्णीयात् / वर्णादिभिः परिणतं प्रासुकनीरञ्च तदभावे उष्णोदकं त्रिदण्डोत्कलितं पानाय कल्पते यतीनाम् / ग्लानादिकारणमृते यामत्रितयोपरि न धार्यम् तद्धि प्रहरत्रितयादूर्ध्वं वर्षासु चेतनीभवति / शिशिरे यामचतुष्कात्पञ्चप्रहरोपरि ग्रीष्मे संसृष्टाऽसंसृष्टोद्धृताऽल्पलेपा तथोद्गृहीता च / प्रगृहीतोज्झितधर्मा चैताः पिण्डैषणाः सप्त तत्र खरण्टितमात्रकहस्ताभ्यां भवति भङ्गकचतुष्कम् / तस्मिन् भङ्गेषु त्रिषु संसृष्टिरन्या त्वसंसृष्टा भोजनजाते गृहिणोद्भूते स्वयोगे ननूद्धृता भिक्षा / निर्लेपवल्लचणका-दिकदानादल्पलेपा स्यात् 140 // 251 // // 252 // // 253 // ": सत // 254 // // 255 // // 256 //