________________ // 337 // // 338 // // 339 // // 340 // // 341 // // 342 // इह लोकेऽपि कल्याणं, जायते मृदुभाषिणाम् / अत्रामृतमुखी नाम, वृद्धनारी निदर्शनम् इह लोकेऽपि दुःखानि, लभन्ते कटुभाषिणः / अत्रार्थे ऋतुभिः शप्ता, वृद्धयोषा निदर्शनम् दया धर्मस्य सर्वस्वं, दया धर्मस्य जीवितम्। मातेव निजपुत्रस्य, दया धर्मस्य पालिका दुःखिताः स्वत एवामी केऽपि केनापि कर्मणा। प्राणिनोऽनादिसंसारे तेषां किं वद चिन्तया जायन्ते चात्र संसारे, शतशः सर्वेऽपि जन्तवः / मातृपित्रादिभावेन, कः प्रियः कोऽप्रियस्ततः हन्मीति चिन्तनादेव, सुकृतं हन्ति जन्मजम्। त्रिजन्मसम्भवं हन्ति, सुकृतं हेतियोगतः घ्नंश्च जन्मशतोपात्तं, सर्वं हन्ति हितं शुभम्। आत्मैव च हतस्तेन, परंघ्नत न संशयः / यतो हन्यादसौ हन्ता, लभते वधबन्धनम्। / दशधा शतधा चैव, लक्षशः कोटिशोऽपि वा दृष्ट्वा च शस्त्रमुद्गीणं, भयात्तरललोचनः / वेपते विविधं प्राणी, सर्वो जीवनवाञ्छया आक्रुष्टोऽपि म्रियस्वेति, दुःस्थो भवति मानसे। मार्यमाणस्य यदुःखं, तद्वेत्ति यदि केवली अर्थवन्तोऽर्थसारेण, राजा राज्येन रक्षति। येन तेन प्रकारेण, रक्षामर्हति जीवितम् यथा स्वयं प्रणश्यन्ति, दुरंदूरेण देहिनः / मृत्योस्तथापरस्यापि, न प्रियं मरणं क्वचित् 123 // 343 // // 344 // // 345 // // 346 // // 347 // // 348 //