________________ // 326 // // 327 // // 328 // // 329 // // 330 // // 331 // एषैव देवता वन्द्या, जिह्वाग्रे या सरस्वती। . अशुभेतरभेदेन, वक्त्रे वक्त्रे व्यवस्थिता मित्राणि चाप्यमित्राणि, बन्धूनपि ह्यबान्धवान्। शत्रूभूतं करोत्याद्या, विश्वं विश्वं सरस्वती अमित्राण्यपि मित्राण्य-बन्धूनपि च बान्धवान्। मित्रभूतं करोत्याद्या, विधं विश्वं सरस्वती स्वरुच्या दीयते दानं, विद्यमानं निजे गृहे। स्वाधीनं दुर्गतस्यापि, मोदकं मधुरं वचः किं किं तेन न दत्तं स्यात्, किं किं नोपकृतं जने। प्रथमं हृष्टवक्त्रेण, मधुरं येन भाषितम् गुणान् स्मरन् सदा शेते, स्मरन्नेव प्रबुध्यते / दानं विनापि लोकोऽयं, पुंसो मधुरभाषिणः सुधया किं गुडेनाथ, किं वा खण्डेन निर्मिता / किंवा शर्करया सृष्टा, स्रष्ट्रा जिह्य महात्मनाम् यदेषा सर्वदा सूते, सुनृतं मधुरं वचः। कठोरकारणाद्यस्मा - न्मृदुकार्य न जायते शुभाशुभानि भावीनि, जीवानं कर्मयोगतः / दुःखमुत्पादयत्येव, तत्क्षणाद् दुर्वचः श्रुतम् दग्धा दवेन रोहन्ति, छिन्ना अपि पुनः पुनः / वचोदग्धा वचश्छिना, न रोहन्ति नरांह्रिपाः मितमधुरमुदारं जन्तुसन्तोषकारं, वदत वदत लोकाः ! सद्वचश्चित्तहारम् / हरहसितहिमानीहारनीहारहारि, भ्रमति भुवि समन्तात्सद्यशो येन सारम् // 332 // // 333 // // 334 // // 335 // // 336 // 120