________________ // 315 // // 316 // // 317 // // 318 // // 319 // // 320 // विवेकसंज्ञितं रत्न - मनयेयमनुत्तरम् / सतां सदा समीपस्थ - महार्यं तस्करादिभिः स्वदेशे च विदेशे च, ग्रामे मार्गे च गच्छताम्। रात्रौ दिवा च कण्ठस्थं, नृणां मण्डनमुत्तमम् निविवेककृतं कार्य, परिणामे न सुन्दरम् / पाताय जायते नूनं, जात्यन्धस्येव चेष्टितम् विवेकदण्डमादाय, मार्गमन्धोऽपि लङ्घते। वाञ्छितं स्थानमाप्नोति, सुखानि च समश्नुते असारे सारतावाञ्छा, शत्रावपि च मित्रधीः / मित्रेष्वमित्रताबुद्धि - निर्विवेकस्य लक्षणम् नमस्तस्मै विवेकाय, हंदयानन्दकारिणे। सद्गुणाय सुवृत्ताय, श्रेयसे हारहारिणे . सविवेकं दुर्लभं दानं, सविवेकं दुर्लभं तपः। सविवेकं दुर्लभं शीलं, सविवेका दुर्लभा श्रियः विवेकाद्भोगदेवेन, सम्पदः सफलीकृताः। विवेकादेव तेनैव, त्यक्ताः प्रथमतश्च ताः भव्या भक्तिभंगवति जिने यत्सदा निष्पकम्पा, संसाराब्धेस्तरणतरिका सेवना यद्यतीनाम्। . यन्निर्लोभं हृदयमनघं यज्जयश्चेन्द्रियाणा - . मेतत्सर्वं शिवसुखफलं सद्विवेकस्य कार्यम् तदेवेहामृतं मन्ये, यत्सत्यं कोमलं वचः। वातॆषा यत्सुरैः सिन्धु - मथितादुद्गतं तु तत् न तस्यास्ति रिपुः कोऽपि, न चापि च परो जनः / वस्त्वसाध्यं न चास्त्यस्य, यस्यास्ति मधुरं वचः // 321 // // 322 // // 323 // // 324 // // 325 // 121