________________ // 52 // // 53 // // 54 // // 55 // // 56 // // 57 // धूपं दहति यः सारं, भावसारं जिनाग्रतः / स याति लब्धसर्वर्द्धि - नरकेसरिवच्छिवम् प्रदीपयति यो भक्त्या, प्रदीपं जिनमन्दिरै / स हि स्यादखिलश्रीणां, भानुप्रभ इव प्रभुः योऽक्षतैरक्षतैः शुभै - रहतां कुरुते बलिम् / कणसार इवात्यन्तं, वर्धतेऽसौ कणश्रिया जिनानामग्रतो दद्यात्, सुन्दराणि फलानि यः / फलवत्यः क्रियास्तस्य, भवन्ति फलसारवत् सुगन्धसर्पिषा यस्तु, करोति जिनमज्जनम् / सद्धृतभृतपात्राणि, स्थापयेद्वा तदग्रतः स गोधन इवोदयां, भुक्त्वा भोगपरम्पराम् / क्षीणनिःशेषकर्मांशः, प्रयाति परमां गतिम् यः स्नापयति बिम्बानि, सुगन्धवरवारिणा / सदम्भः पूर्णकुम्भान् वा, ढौकयेद्यस्तदग्रतः स प्राप्य सुन्दरा लक्ष्मी, रससार इवेप्सिताः। सम्पूर्णधर्मसम्पत्त्या, ततो याति शिवालयम् अष्टस्वङ्गेषु वा पूजा, पुष्पैरष्टभिरर्हतः। विशुद्धप्रणिधानेन, कर्माष्टकक्षयङ्करी . अष्टकर्मविनिर्मुक्त - पूज्यसद्गुणसूचिका / . अष्टपुष्पी समाख्याता, फलं भावनिबन्धनम् एकेनापि हि पुष्पेण, पूजा सर्वविदः कृता / त्रिजगत्यपि तन्नास्ति, वस्तु सद्यन्न यच्छति आदाय कुङ्कुमं रम्यं, कर्पूरोन्मिश्रचन्दनम् / विलेपनं जिनेन्द्रस्य धन्यैरेव विधीयते // 58 // // 60 // // 61 // // 62 // // 63 //