________________ // 40 // // 41 // // 42 // // 43 // // 44 // // 45 // सम्प्राप्य मानुषं जन्म, दुर्लभं भवकोटिभिः / व्यापारितं सदा धर्मे, यैस्ते ह्यत्र नरोत्तमाः . गच्छतां दुर्गसंसार - मार्गे पर्यन्तवर्जिते / धर्मसम्बलमृते पुंसां, दुःषमानि पदे पदे सीदन्त्यत्र न यैर्धर्मः, सम्यगासेवितः पुरा / साम्प्रतं न च कुर्वन्ति, तेषामग्रेऽपि नो सुखम् तदेष भगवान् धर्मो, दुर्गतिगतधारकः। . सद्भिः सदैव कर्तव्यः, सर्वसौख्यनिबन्धनम् धर्मो विजयी सर्वत्रा - ऽधर्मो विजयवर्जितः / ततोऽधर्म परित्यज्य, धर्मे यत्नो विधीयताम् द्रव्यतो भावतश्चैव, द्विविधं देवतार्चनम् / द्रव्यतो जिनवेश्मादि, स्तुतिस्तोत्रादि भावतः अस्याधिकारिणो ज्ञेया, द्विविधस्याप्यगारिणः / प्रायो भावस्तवे चैव, साधूनामधिकारिता विधाप्य विधिना श्राद्धः, सुन्दरं जिनमन्दिरम् / . तत्र बिम्बं प्रतिष्ठाप्य, पूजयेत् प्रतिवासस्म् विधिना शुचिभूतेन, काले सत्कुसुमादिभिः / स्तुतिस्तोत्रेश्च गम्भीरैः, कर्तव्यं जिनपूजनम् चारुपुष्पामिषस्तोत्रै - स्त्रिविधा जिनपूजना / पुष्पगन्धादिभिश्चान्यै - रष्टधेयं निगद्यते शुभैः सुगन्धिभिः पुष्पै - यः कुरुते जिनार्चनम् / स प्राप्नोति समं कीा, रत्नचन्द्र इव श्रियः पुटपाकादिभिर्गन्धै - र्येऽर्चयन्ति जिनेश्वरम् / . लभन्ते तेऽचिरात्सिद्धि, रत्नसुन्दरवज्जनाः . // 46 // // 47 // // 48 // // 49 // // 50 // // 51 // 8