________________ // 7 / 253 // // 7 / 254 // // 7 / 255 // // 7256 // // 7257 // // 7 // 258 // स्त्रियो मोहचमूचर्यो मृतेषु स्वस्वभर्तृषु / अब्जिन्य इव शुष्केषु सर:स्वनुविपेदिरे मोहसत्का विवेकीयैस्श्वैरश्वा गजैर्गजाः / रथै रथाः पत्तिभिश्च पत्तयो निन्यिरे क्षयम् तस्य नित्यानुगः कोशस्तै रयेण व्यलुट्यत / परप्राणहृतां द्रव्यमोषणे खलु का कृपा चिरं परिचयान्मोहे महास्नेहं वहन्नपि / मनोमन्त्री विवेकस्योदयिनोऽदर्शयत्स्वताम् अथ स्वशिबिरे वीक्ष्य विप्लवं वैरिनिर्मितम् / कोपोऽदीपिष्ट मोहस्य लब्धेन्धन इवानलः स दध्यौ दुःखदग्धात्मा ही विवेकस्य सैनिकैः / . अभक्षि सर्वं दुर्भिक्षायातैरिव बलं मम पश्यामि यदि तत्तं प्राग् दैवमेव निहन्म्यहम् / . इयन्तं मे परीवारं यः संयोज्यं व्ययोजयत् मृदुः शीतोऽलसो बाल्ये विवेको वीक्षितो मया / / सैन्यं तत्सेवकैस्तुच्छीक्रियते मेऽद्य धिग्विधिम् ज्ञात्वेममीदृशं वीरा मम तस्थुरवज्ञया / .. सज्जाः स्युर्यदि तनैते जीयेस्नपि जिष्णुना , पलाय्य कोऽपि यन्नागान्मभृत्यैः सुष्ठ तत्कृतम् / जयो वा युधि मृत्युर्वा शूराणां हि द्वयी गतिः न जातु युध्यमानोऽहं परसाहाय्यमर्थये / * तमांसि नाशयत्यंशुरितरस्य बलेन किम् रणक्षेत्रमथो नेत्ररक्तताव्यक्तमत्सरः / / कुर्वनानायुधोल्लासैः सहस्रार्जुनविभ्रमम् 291 // 7 / 259 / / // 7260 // // 7 / 261 // / / 7 / 262 // // 7 / 263 // // 7 / 264 // . . 281