________________ अथो वीरागवीरस्य त्रासाय सुमसायकः / बभूव सहसा पुंस्त्रीक्लीबवेदैस्त्रिरूपभाक् // 7 // 241 // दृष्ट्वापि रूपबाहुल्यं न तस्य त्रस्यति स्म सः / दृष्टेऽप्यग्निकणाधिक्ये शङ्कते किं घनाघनः // 7 // 242 // बिभीषयसि मां मूढ ! नानारूपैरिति ब्रुवन् / द्वे रूपे सोऽन्तिमे तस्य युगपनिष्कृपोऽवधीत् // 7243 // तस्य संवेगनिर्वेदौ दधावतुरथानुजौ।। अन्यत्वचिन्ताकुन्ताढ्यावौदासीन्यद्विपासनौ' // 7 / 244 // हास्यरत्यरतित्रासजुगुप्साशोकसंयुतौ / रागद्वेषौ रणे ताभ्यां कृतौ सद्यो दिशां बली // 7 / 245 // पुनर्भवविरागोऽसौ जातरागोऽरिकुट्टने। मदनस्यादिमं रूपमवधीद्व्याधवन्मृगम् // 7 / 246 // वीक्षमाणा रणक्षेत्रं शमाद्या ददृशुः पुरः / क्रोधादीनेकरूपांस्तानेकशाखांस्तरूनिव . // 7247 // तदा तदन्त्यं ते रूपं तेषां निन्युः परासुताम् / / वैरी वह्निरिवाल्पोऽपि न विश्वस्यो महात्मनाम् // 7 // 248 // संतोषो दुर्मरं ज्ञात्वा लोभं भक्त्वा व्यधात्रिधा / भागद्वयं निहत्यान्त्यं भागं चक्रे च कोटिधा // 7 / 249 // कालभेदेन सर्वांस्तान् स भक्त्वा भागमन्तिमम् / कृत्वा खण्डानसङ्ख्येयानवधीनवधी रणे // 7 // 250 // तदोत्साहादिभिर्योधैर्युद्धभूमौ भ्रमंभ्रमम् / नीता निष्ठां यथा दृष्टाः प्रमादाद्या अरातयः // 7 / 251 // विवेकानीकवर्त्तिन्यो भामिन्योऽप्यनुवल्लभम् / युध्यमाना भटैदृष्टा योषिद्वेषा भया इव // 7 / 252 // 290