________________ // 6 / 111 // // 6112 // // 6113 // // 6 // 114 // // 6115 // // 6 / 116 // उदूढां तरुणी कुल्यां तृणीयन्तः सधर्मिणीम् / विटकोटिनिघृष्टायां रज्यन्ति पण्योषिति यद्भाव्यं तद्भवत्येव किं देवैर्मे जिनेतरैः / इत्यापद्यपि ये धीराः स्तोकास्ते श्रावकाः कलौ जीवाजीवौ तथा पुण्यपापे आश्रवसंवरौ / निर्जरा बन्धमोक्षौ ते प्रायस्तत्त्वानि नो विदुः येषां लक्ष्मीमहत्त्वं च तान् विडम्बयितुं कलिः / मिथ्यात्वं विरतिद्वेषं कुपात्रासक्तिमन्वशात् आरम्भान् क्लेशबहुलान्विधाप्य निखिलं दिनम् / स क्षणे धर्मकृत्यस्य तेषां जनयति श्रमम् धर्मः समाधिजन्मेति समाधिध्वंसनाय सः / कलः कलिप्रियश्चके क्ष्मां लसड्डिम्बडम्बराम् लोकग्रासाय राजानो जज्ञिरे राक्षसा इव / तैर्नियुक्ता नरा आसन् रक्षका भक्षका इव पुत्राः पितृष्वभक्तास्तेऽप्यमीषां विश्वसन्ति न / ' युध्यन्ते सोदराः शण्डा इवान्योन्यं धनाशया वृश्चिकीव स्नुषां श्वश्रूरश्रूणि किरतीं सदा / तुदत्यल्पापराधेऽपि पुत्र्यां कामगवीयति सापि गेहे विभुंमन्या तस्यां सुष्टु न वर्त्तते / भेदयन्ती नदीवाद्रिं शीतलैर्वाग्जलैः पतिम् सगोत्रेभ्योऽभ्यसूयन्ति श्यालकैर्बद्धसौहृदाः / वशावशंगता मातर्यपि मर्त्याः खरोक्तयः सरस्यम्भ इव ग्रीष्मे कलौ तुच्छं धनं नृणाम् / बह्वारम्भं बहुक्लेशं बाधीनं तदप्यहो 256 // 6117 // // 6 / 118 // // 6119 // // 6120 // // 6121 // * // 6122 //