________________ // 663 // / 664 // // 665 // // 666 // // 667 // // 668 // विवेकं विधुरीकृत्य दुष्टाश्व इव सादिनम् / . करिष्याम्यचिरान्मुक्तिदुर्गमार्गमसञ्चरम् तच्छ्रुत्वां भूपतिर्दध्यावस्मिन् संभाव्यतेऽखिलम् / अमुष्यानुपमा स्फूर्तिराकृत्या वचसापि च अत्यौद्धत्येन न त्वेष चिरायुर्मे घटिष्यते। . अत्युद्धता विनेशुमा॑क् वैदुर्योधनादयः मया तदपि धार्योऽयं राज्योपष्टम्भकारणम् / प्राप्तो व्यहमपि प्रीत्यै न किं चिन्तामणिर्नृणाम् निश्चित्येति स सत्कृत्य स्वान्तिके तमतिष्ठिपत् / रत्नकोशादपि प्रेयान् जिगीषोर्योधसंग्रहः ततः प्रसृत्वरे तस्मिन् ज्ञानी दूरं ययौ जिनः / यानासने जिगीषूणां काले षाड्गुण्यविज्ञता गते दूरं जगन्नाथे कलिः स्वैरं व्यजृम्भत / दिनेश्वरे तमःपुर इव सत्पथरोधकः. निवेश्योभयतो रागद्वेषौ पथि महाभटौ / स्वाक्रान्तक्षेत्रतो मुक्तिं गन्तुं कस्याप्यदान सः मनःपर्यायविज्ञानं केवलं परमावधि / क्षपकोपशमश्रेणी संयमत्रयमग्रिमम् जिनकल्पः पुलाकर्द्धिस्तेनादौ निन्यिरै क्षयम् / एषु सत्सु हि जैनेन्द्रः प्रतापः किल जागरी स चतुर्दशपूवित्वं दशपूर्वित्वमप्यथ / क्रमात्पूर्वानुयोगं चावधीन्मोहमहाद्विषम् अविरोधेन जैनानां मिलन्मोहजुषामपि / आद्यं संहननं तेन व्यभेद्युभयचेतनम् પર // 6 / 69 // // 670 // // 671 // // 672 // // 673 // // 674 //