________________ // 5 / 365 // // 5366 // .. // 5 / 367. // . // 5 // 368 // // 5 // 369 // // 5 / 370 // तया स्वीकृतयाहं च सर्वोऽपि च परिच्छदः / त्यक्त्वा जिह्मत्वमाप्स्यावः पाटवं रिपुपाटने गुरुनैमित्तिकोक्तं तन्मम दध्वन्यते हृदि / नेष्यामि क्षमतां तस्योपदेशादेव दुहृदः वक्ष्यन्ति केऽपि चतुरमितरे कातरं तु माम् / अबद्धमुखलोकोक्तीः कियतीर्हदये दधे कोका नन्दन्तु निन्दन्तु निरानन्दा द्विकारयः / / न मुश्चति पुनः स्वीयां सूरः स्वाभाविकी गतिम् नलस्य त्यजतः पत्नी स्वस्थानं मुञ्चतो हरेः / स्खलना खलु नाऽवे रे विसंस्थुलजनोक्तिभिः त्वं मयि प्रस्थिते पौरगणं तत्र समानयेः / मा कोऽपि कोपिनस्तस्यास्मद्गृह्यः प्रपतद्ग्रहे अत्रान्तरे विशिष्टास्ते प्राप्ताः प्राक् प्रहिता नराः / नत्वा व्यजिज्ञपन्मौलिकरम्बितकरद्वयाः प्रसीदतितरामद्य स्वामिन् स भगवांस्त्वयि / - गोष्ठ्या गुणानामाधारमेकं त्वामेव शंसति गुणगौर ! न गौरव्यस्त्वत्परस्तस्य कश्चन / जातैवेष्टार्यसिद्धिस्ते दृष्टे तस्मिन्न संशयः इति तद्वचनं मन्यमानः शकुनमुत्तमम् / विवेकः प्रस्थितः प्राप सुखं प्रवचनं पुरम् विचारोऽपि विवेकस्य वियोगं सोढुमक्षमः / पौरानातन् पुरस्कृत्य दधावे तस्य पृष्टतः सर्वेऽर्हतः पुरीं प्राप्ताः क्रमान्मुमुदिरेतराम् / तस्य दृष्टिहि निःशेषद्वेषिविप्लववारिणी // 5 / 371 // // 5 / 372 // // 5 / 373 // // 5 / 374 // // 5 / 375 // - // 5 / 376 // 244