________________ // 5 / 138 // // 5139 // // 5 / 140 // // 5 / 141 // // 5 / 142 // // 5 / 143 // तथा कुरु यथा राज्यं प्रथामञ्चत्यदश्चिरम् / उन्मूलयामि निर्मूलं वैरिवंशं भयावहम् राजादेशादमात्योऽथापृच्छदेकान्तवत्सलः / गुरुं ज्योतिषिकं राज्यवृद्धिं वैरिकुलक्षयम् स जगौ राजगौरव्य तदिदं हितकाम्यया / वृद्धावाप्तश्रुतज्ञानानिरवैषं पुराप्यहम् तवास्ति विदितं तावत् पुरं प्रवचनाभिधम् / तत्पालयति सर्वज्ञो राजा दातोदयी दयी केवल श्रीः प्रिया तस्य नित्यमव्यभिचारिणी / यदृशा लोकते लोकालोकवृत्तं नरेश्वरः तया सह रह:सौख्यं स बुभुक्षुर्निरन्तरम् / निजां राज्यस्थितिं सर्वां विवेकाय प्रदत्तवान् यावद्भवस्थिति तं च विवेकं च परिच्छदः / . सर्वोयं सेवते रूपद्वयभाक् सिद्धविद्यवत् . तस्य संवरनामास्ति सामन्तोऽनन्तविक्रमः / एकोऽपि यः क्षमो हन्तुं ससैन्यं मोहमाहवे अमुष्य मुख्यतामाप्ता मुमुक्षा गहिनीगुणैः / यस्याः स्वरूपसौंदर्यं योगीन्द्रा यदि जानते तयोविश्वहिता सत्त्वसहिता दुहितास्ति या / संयमश्रीरिति ख्याता धुसदामपि दुर्लभा यदा तामनवद्याङ्गी विवेकः परिणेष्यते / दृष्टस्तदैव दैवज्ञैरस्य दस्युकुलक्षयः वयस्याः सन्ति या वश्या अस्याः समितिगुप्तयः / तासामेकैकया राज्यारोहो मोहस्य हस्यते 225 // 5 / 144 // // 5 / 145 // // 5 / 146 // // 5/147 // // 5 / 148 // // 5 / 149 //