________________ // 5 // 30 // // 5 // 31 // // 5 // 32 // // 5 // 33 // // 5 // 34 // मुजः / // 535 // निवृत्तेऽपि तलारक्षतुमुले ते मलीमसाः / . नामुच्यन्त भिया यस्मात्परभूः परिभूतये मृगा इव ज्वलत्कक्षे ते तत्र स्थातुमक्षमाः / व्यावृत्य सत्वरं जग्मुः सभां मोहमहीभुजः ततस्ते जीवितंमन्याः प्राप्तार्णवतय इव / प्रणम्य स्वामिनं दीना यावत्किंचिद्वभाषिरे तावन्मोहो जगौ रे रे मा मा वोचत वोचत / मुखमेव व्यनक्त्येतद्युष्माकमकृतार्थताम् परं दम्भभटो योऽभूद्भवतां पारिपार्श्विकः / स किं न दृश्यते तत्रादृष्टे मे कम्पते मनः ममैश्वर्यं तदायत्तं स हि मे दक्षिणो भुजः / जातुचित्तस्य वीरस्य मा श्रौषं दुर्दशामहम् उत्पाताः केपि नाभूवन् दुःस्वप्नमपि नेक्षितम् / नेक्ष्यते राज्यसर्वस्वं स हि विस्मयते मनः तथोदित्वा स्ववृत्तान्तं सर्वं व्यावर्तनावधि / . बह्वारम्भस्य दम्भस्योदन्तं वक्तुं प्रतुष्टुवुः राजस्तदा तलारक्षातङ्के दम्भो जगाद नः। भो भो वलध्वमल्पो हि गणः परपथे भिये अहं पुनर्विवेकस्य प्रविश्य नगरान्तरा / यथा तथा हरिष्यामि शुद्धिमालोक्य मूलतः एवमेव निवर्ते चेदकृतार्थोऽनया भिया / तादृक् स्वामिप्रसादानां तदा स्यामनृणः कथम् इत्याकर्ण्य महीपालो विलक्षः शोकशङ्कुना / आकाशे लक्ष्यमाबध्य निजगाद सगद्गदम् // 536 // || 5 / 37 // // 5 // 38 // // 5 / 39 // // 5 // 40 // // 541 // 216