________________ // 5 / 18 // // 5 / 19 // // 5 / 20 // // 5 / 21 // // 5 // 22 // // 5 / 23 // आकार्य कार्यविन्मोहः स्वामिभक्तान्विचक्षणान् / आदिशद्दम्भपाखण्डकुश्रुतादीश्वरांस्ततः भुवं भ्रमं भ्रमं भो भो निभालयत भाक्तिकाः / उपलब्धं,विवेकस्य तस्योदन्तं दृढाग्रहाः आदेशं स्वामिनः प्राप्य भट भुजबलोत्कटाः / भूयसीं बभ्रमुर्भूमि ते वनीमिव वानराः यत्नाद् गवेषयामासुर्विवेकं ते पदे पदे / यावद्वेदमुदन्तं च जनं तस्यान्वयुञ्जत लेभिरे न पुनः शुद्धि विवेकस्य महात्मनः / स ह्यल्पसाधुहृत्कोणवासी केनोपलक्ष्यते ततश्च्युतेषव इव व्याकुलीभूतचेतसः / ययुर्बाह्यां भुवं यावत्पुण्यरङ्गपुरस्य ते निषण्णा निश्चलीभूय दुरीहागर्तनिश्रयाः / . तलारक्षस्य तेऽशृण्वन्निति डिण्डिकृतो वचः / हंहो सम्यक्त्वसौशील्यसमाधिप्रमुखा भटाः / मा प्रमादिष्ट भवताहताः पश्यत पश्यत एति मिथ्यात्वधूर्तोऽयं वार्यः सुश्रुतिहेतिभिः / विविक्षुर्नगरे वध्यः सोऽयमुन्मादतस्करः . अयमानीयतां वध्यभुवं दुर्भावदुर्जनः / / असावसञ्चरो वैरी न मोच्यः शूलिकां विना सर्वेऽप्येवंविधा मोहस्यैव सेवापरायणाः / विवेकस्वामिनादिष्टा हन्तुं तत्किं विलम्ब्यते विवेकशुद्धिलाभेन तलारक्षरवेण च / / ततो हर्षविषादाभ्यां युगपत्ते विडम्बिताः 215 // 5 / 24 // // 525 // // 5 / 26 // // 5 // 27 // // 5 // 28 // // 5 / 29 //