________________ // 5 / 42 // // 5 / 43 // . // 5 / 44 / // 5 / 45 // // 5 / 46 // // 5 / 47 // नानाधियामवष्टम्भस्तम्भसाम्राज्यसद्मनः / अमोघारम्भसरम्भ ! दम्भ ! त्वं विजयी भव एह्येहि दर्शनं देहि प्रसादानृण्यमेव ते / परमण्डलपारीन्द्र ! किमेतदुदितं त्वया याते जम्बुकतां वैरिभीतभृत्यकदम्बके / सत्त्वधार ! त्वयैकेन तत्र पञ्चाननायितम् प्राणानपि तृणीयन्ति स्वामिनोऽर्थे सुसेवकाः / सेवारीतिरियं सर्वैः श्रुता त्वयि पुनः स्थिता त्वामेवालम्ब्य भूपाला जयन्ति युधि शात्रवम् / त्वां विना लौकिकी सिद्धिर्भवन्तो क्वापि नेक्षिता रणे राजकुलेऽरण्ये हट्टे नाट्ये जलस्थले / त्वामेवैकं पुरस्कृत्य लभन्ते सम्पदं जनाः त्वयैकेन विना वीर ! सभा मेऽजनि निष्प्रभा / . मुक्तास्रक् तरलेनेव प्रकृष्टतरतेजसा एवं शोकातुरे मोहराजे क्रोधादयो भटाः / / स्वयमेव महासत्त्वा दम्भशुद्ध्यै दधाविरे ते सम्प्राप्ता विवेकस्य पुरः परिसरावनिम् / प्रवेष्टुमशकन्नान्तस्तस्या वारा निधाविव एवमेव स्फुरन्माना वलमानास्त्रपामहे / . . इति कांश्चिद्विवेकीयांस्ते बन्दीचक्रिरे जनान् क्रोधोऽग्रहीत् कुरुट्यादीन्मानो बाहुबलेनिभान् / लोभः केसरिसाध्वादीन् स्थनेम्यादिकान् स्मरः तै—त्तैस्तेषु दृप्यत्सु व्यावृत्तेष्वथ केचन / वीरा बाहुबलिप्राया नंष्ट्वा स्वस्थानमाययुः 210 // 5 // 48 // टटला . // 5 / 49 // // 5/50 // // 5 / 51 // // 552 // // 5 / 53 //