________________ // 4 // 343 // // 4 // 344 // // 4 / 345 // // 4346 // // 4 // 347 // // 4 // 348 // लाक्षा पापा फलं क्रम्याकुलं मूलं सपीलुकम् / येषां ते पिप्पलास्तत्र पितॄणां तृप्तिकारणम् यथा जलैर्गवादीनां तृप्तिस्तद्वद्बकादिभिः / मत्स्यादीनां क्षयो यत्र तत्सरस्तत्र धर्मकृत् कायेन कायिकं कर्म भोक्तव्यमिति निश्चये / तत्र केप्यादिशन्त्यंहःक्षयं स्वेन स्वलोभिनः धेनुर्मुडतिलस्वर्णमयी मन्त्रेण जीविता / विभज्य गृह्यते लुब्धैः पापं भिन्द्धीति वादिभिः मार्यमाणाः कणान् द्विवान् क्षेत्रेऽश्नन्ति पतत्त्रिणः / तत्ताकर्षणारम्भान्मोक्षस्तत्रेयताप्यहो स्पृष्टमेव करैर्भानोः सर्वं याति पवित्रताम् / इति स्मृतिवचस्येके कुर्वन्ति निशि भोजनम् सुरसिन्धोरपि जलं न कल्मषहरं निशि / शुध्येयुस्ते तु भुञ्जानाः कथमाचमनोदकैः स्युभिन्नगतयो जीवाः कर्मभेदादिति स्फुटम् / शठस्तत्राबला भर्तुर्दह्यन्ते सङ्गमोक्तिभिः पृथग्गृहस्थिते ताते दत्तं पुत्रेण याति न / तथापि पिण्डदास्तत्र तातेऽन्यभवगे सुताः न स्त्री दुष्यति जारेण धर्मशास्त्रस्य वागियम् / क्लिश्यद्भिः स्वकलत्राणां त्राणे तत्रावहील्यते ऋषिपत्नीहरो गोपीर्गोविन्दस्तापसी हरिः / परस्त्रीसङ्गवैगुण्यं वदन्तोऽपि सिषेविरे तिस्थामविवेकानामसंज्ञानां महीरुहाम् / तन्वानास्तत्र वीवाहं स्वमेवाहुरचेतनम् 200 // 4 // 349 // // 4 // 350 // // 4 // 351 // // 4 // 352 // // 4 // 353 // // 4 // 354 //