________________ अरण्यवासिनः शुष्कतृणाहारान्मरुत्पिबान् / . घ्नन्तो मृगादीनिर्मन्तूंस्तत्र लोकाः श्ववृत्तयः // 4 / 355 // निर्मासं भोजनं राज्ञां न स्यादिति वचस्विनः / केचित्तत्र भवावर्ते मज्जयन्तीश्वरानपि // 4 / 356 // असन्तं केचिदात्मानं मन्यन्ते व्यापकं परे / क्षणक्षयिणमन्येऽन्ये चैकं तत्रावलेपिनः // 4 // 357 // राज्यं बलोत्कटं तस्य समन्ताच्चरवृत्तिना। वयस्येन विचारेण रहोऽभ्येत्य ममौच्यत , // 4 // 358 // . त्रिलोक्या नायकोऽसि त्वं सोपि वक्ति स्वमीश्वरम् / एकत्र हि प्रतीकारे करवालद्वयं किमु // 4 // 359 // लोकस्त्वां मन्यते नायं सोप्यागत्यान्तरान्तरा / बलादाक्रम्य तं स्वाज्ञां ग्राहयत्युग्रशासनः' // 4 // 360 // द्वैराज्यसङ्कटग्लानं किं कर्त्तव्यतयाकुलम् / समुद्धर जगन्नाथ ! लोकं द्वैधं निराकुरु ... // 4 // 361 // उवाच भगवानेवं वत्स ! स्वच्छमते ! शृणु। / यत्त्वया गदितं सर्वं तद्ज्ञानान्मन्महे वयम् // 4 // 362 // किं कुर्मः कर्मसम्बम्धाबलवान्मोहभूपतिः / वीरैरायोधने क्षुण्णोप्येष दूर्वेव वर्द्धते // 4 / 363 // मोह एव महाशत्रुर्मोह एव महाखलः / मोह एव महाव्याधिर्मोह एव महाविषम् // 4 // 364 // या मत्ता मदनातुरेण पुरुषेणान्येन रन्त्वा धृतं, ग) हन्त जिघांसति द्विषमिव क्षारोग्रतैलादिभिः / जातं तं मलवत्त्यजत्यविकलस्वार्थैकनिष्ठाविदुस्तामात्यन्तिकवत्सलां हि जननी धिग्मोहविस्फूर्जितम् : 4 / 365 208