________________ न विश्वेऽग्नेः समं शस्त्रमिति वेत्त्यखिलो जनः / अजस्रमेधने वह्नरिन्धनैस्तत्र धर्मधीः . // 4 // 331 // यस्य खाद्यं पुरीषाद्यमपि नाचमनाय च / पयोपि रोचते तत्र सोऽग्निर्मखभुजां मुखम् // 4 // 332 // त्वग्मात्रस्पृगजलं बाह्यं मलं छेत्तुमलं स्फुटम् / पापक्षयः पयःस्नानैः प्रोक्तस्तत्राङ्गिमर्दनैः // 4 // 333 // संसारवृद्धिरारम्भबाहुल्यं पापधीर्यतः / तत्तत्रासूत्र्यतेऽगण्यपुण्यं कन्याविवाहनम् , // 4 // 334 // शुकस्य योगिनः सम्यक् पीत्वापि चरितामृतम् / गृहाश्रमात्परो धर्मो नास्तीत्येके वदन्त्यहो // 4 // 335 // अहिंसा परमो धर्म इति संसदि वादिनः / छागादीन् घ्नन्ति धर्मार्थं तत्र ज्ञा अप्यविज्ञवत् // 4 // 336 // सरघानननिष्ठयूतमुद्भूतं जन्तुहिंसया / स्नानार्थमय॑ते हन्त विबुधानां बुधैर्मधु // 4 // 337 // पति मुक्त्वान्यतो यान्ती स्त्री दुष्टेति नये सति / / / पुरन्ध्री दीयते क्वापि पुण्यबुद्ध्या द्विजन्मनाम् // 4 // 338 // निर्विवेका पशुधेनुर्वृषस्यन्त्यपि नन्दनम् / अपवित्राशिनी तत्रोच्यते परमदैवतम् // 4 // 339 // पुच्छमूले गवां मूत्रमलक्लेदिनि कुत्सिते / वास्यन्ते सत्यपि स्वर्गालये तत्र शठैः सुराः // 4 // 340 // क्वचिदैवतयात्रायां यात्रिका जन्मिनां वधम् / बुम्बारवं सुरापानमेकाकारं च कुर्वते // 4 // 341 // द्रवः समुद्भवज्जन्तुजातघातनिबन्धनम् / रोप्यन्ते तत्र धर्मार्थमीषच्छायासुखार्थिभिः // 4 // 342 // 206