________________ // 4 // 319 // // 4 // 320 // // 4 // 321 // // 4 // 322 // // 4 // 323 // // 4 // 324 // साम्प्रतं त्वां निषेवन्ते वासवाद्या महर्द्धयः / बहिर्गतास्तु तस्यैव सेवां सर्वेऽपि कुर्वते निर्भरं ये तपस्यन्ति शून्यारण्यनिवासिनः / तेऽपि भीता इवामुष्य पक्षपातं त्यजन्ति न जपन्ति नाममन्त्रं ये तव हर्षान्महर्षयः / तेषामपि मनस्तस्यावस्कन्दाभृशभीरुकम् यैरुत्पातैः क्षणाद्राज्यमन्यस्य भ्रश्यति ध्रुवम् / तैरस्योच्छ्रायमाप्नोति निमित्तज्ञः करोति किम् हिंसास्तैन्यमसत्योक्तिब्रह्मद्रोहकुबुद्धयः / व्यसनानि भ्रूणघातास्तत्र संततवृत्तयः नागान्नमन्ति निर्जीवान् जीवतो घ्नन्ति निर्दयाः / पुण्यं दवाग्निदानेपि मन्यन्ते तत्र केचन आसतां बालिशास्तत्र नानाशास्त्रविदामपि / . शौण्डानामिव वीक्ष्यन्ते 'निर्विचाराः प्रवृत्तयः पूज्यन्ते देववत्तत्रोदुम्बरोदूखलादयः / / अग्रकूरप्रदानाय वायसस्यापि पात्रता पाशाद्वैतंसिकानां ये त्रातुं स्वमपि न क्षमाः / ते वयस्तित्तिरिप्रायाः प्रौच्यन्ते परमेश्वराः जायन्ते योषितां कुक्षाववशा ये पुनः पुनः / सुरेभ्य इष्यते मूखैः पदं तेभ्योऽपुनर्भवम् येषां परिग्रहो दारधनगोधनगोचरः / यतन्ते ते गुरूभूय भूयसां भवतारणे अयता अयतेभ्यः स्वं ददाना वस्तु वल्लभम् / यद्भवाब्धिं तितीर्षन्ति तदन्धैरन्धकर्षणम् // 4 // 325 // // 4 // 326 // // 4 // 327 // // 4 / 328 // // 4 // 329 // // 4 // 330 // 205