________________ "मक इति स्तुत्वा महाभक्तिपञ्चाङ्गस्पृष्टभूतले / तस्मिन्नमति सोत्कण्ठः स्वामी संमुखमैक्षत // 4 / 296 // जगदे जगदीशेन हहो शृणुत पार्षदाः / योयं नमति मां वीरवरः स खलु भाग्यभूः // 4 / 297 // देवादिसदसद्भावपरीक्षणमना मनाक् / जनः सङ्गस्यतेऽनेन यः स विद्वान् भविष्यति // 4 / 298 / / अनीकं नायकेनेव साङ्गैरपि सुन्दरः / लोकेऽनेन विना धर्मः कर्म वा नाश्नुते फलम् // 4 / 299 // नायमेकेन्द्रियेष्वस्ति न पुनर्दीन्द्रियादिषु / न चासंज्ञिषु नानूनः पशुनारकनाकिषु // 4 / 300 // मर्येष्वपि कुलाचार्यश्रद्धारोग्यादिसंभवे / / स्वल्पेष्वेव स्फुरत्येष मुक्ता शुक्तिपुटेष्विव // 4 // 301 // नाहंकारो न च कृपणता नो कटूक्तानि लक्ष्म्याम् / दौःस्थ्ये नाधिर्न परविभवद्वेषिता नादयत्वम् / न स्वोत्कर्षापरपरिभवौ नो कुकाव्यं कृतित्वे / न हीहासः श्रुतविरुचिता दुर्मतिश्चाल्पवित्त्वे // 4302 // सुखे न गृद्ध्या विषयाभिषङ्गो दुःखे न दैन्यं न परोपतापः / न जीविते कर्म यशोविरोधि न चात्यये दुर्गतिदुर्गवासः।। 4 / 303 // श्रियां दौःस्थ्ये श्रुते भुयस्यणावपि सुखेऽसुखे / जीविते मरणे चैको विवेकस्तत्सतां प्रियः // 4 // 304 // निष्कारणोपकार्येष द्वेषकल्मषवर्जितः / संवर्य मम साम्राज्यं प्राज्यमर्जयिता यशः // 4 // 305 // प्रतापाग्निज्वलद्वेषिशलभाः सुलभाः श्रियः / रामा अप्यभिरामाङ्ग्यः सङ्गमोस्य तु दुर्लभः // 4 // 306 // 203