________________ सन्त्येव शमनोपाया विषव्यालानलादिषु / सपत्नीशमनोपायः प्रायः क्वापि न वीक्षितः .. // 4 / 260 // सपल्यामतिदुष्टायां प्रिये क्रुद्धपि जीवितौ / यदावां तत्साधुवृत्ताद्यतो धर्मस्ततो जयः // 4 // 261 // स्थानभ्रंशं न शोचामि स्वामिनो वावहीलनम् / चेत्त्वां पश्यामि खेलन्तं पुरः प्रीतिस्पृशा दृशा // 4 / 262 // सर्वाण्यपि निधानानि क्षयं यान्ति व्यये सति / पवित्रचरितः पुत्रो गेहिनामक्षयो निधिः // 4 // 263 // यस्या एकोऽपि सत्पुत्रः सा स्वं निन्दति किं वशा / कस्य न स्यान्मुदे जातजात्यरत्नजनिः खनिः / // 4 // 264 // भाग्यवानसि यत्तात ! विमातुर्निर्गतो मुखात् / . . यच्च पुण्यामिमां कन्यां लीलया लब्धवानसि // 4 // 265 // तव चिन्तां ध्रुवं कर्त्ता पिताप्येत्यान्तरान्तरा / स हि त्वयि रिपुः पत्नीनुन्न एव न तु स्वतः . // 4 // 266 // त्वया सत्त्वाधिकत्वेन कृताहं स्त्रीषु पुत्रिणी। आयुष्मांस्त्वं ततो भूयाः प्रार्थ्यं मे किमतः परम् // 4 // 267 // कुलीन ! कुलधौरेय ! ततस्त्वं स्तूयसे बुधैः / यन्मातुश्चित्तसन्तापशमनाय प्रगल्भसे // 4 // 268 // स्त्रीणां भवति सन्तापो यः सपत्नीपराभवात् / न तं भानुयृहद्भानुरपि कर्तुं प्रभूयते // 4 / 269 // मित्रोद्धारेऽरिसंहारे शक्तिर्नान्यत्र भूभुजः / पद्मोल्लासे तमोनाशे कः क्षमस्तरणि विना - // 4 // 270 // तदत्र पुरि सेवस्व क्षमाधीशं निरञ्जनम् / .. यस्य प्रसादलेशोऽपि सर्वसिद्धिनिबन्धनम् // 4 / 271 // 200