________________ अहमुद्वाहसमयेप्यस्य सन्निहितोऽभवम् / न मे गमागमौं वेगवतो दूरेऽपि दुष्करौ // 4 / 248 // मद्वारेणास्य वीरस्य विज्ञाय चरितामृतम् / भूपालोऽपि श्लथीभूतपाशः सुखमवाप्स्यति // 4 // 249 // आप्तसौख्योऽपि नेदानी मोहं हन्तुमसौ क्षमः / सुतश्च बद्धमूलश्च सहसा न हि साध्यते // 4 / 250 // मा स्म भू रोषभूस्तन्वि पक्षे वर्ते तवाप्यहम् / पुरस्कृत्य सुतं स्वेष्टं साधयेति च तां जगौ // 4 // 251 // सापि प्रकृतिगम्भीरा विस्मृतप्राक्पराभवा / भर्तुस्तयैव वाचाभूत्परमप्रीतिभाजनम् // 4 // 252 // सान्यदा तनयं प्रोचे शृणु वत्सैकवत्सल / त्वं योग्योसि हितोक्तीनां पक्वः कुम्भ इवाम्भसाम् // 4 / 253 // यस्मै तस्मै न रोचन्ते प्रायो भुवि गुरूक्तयः / . कर्तुं न पार्यते येन तेन वा रत्नसंग्रहः . आपाते कटुकाः सन्तु कदाचन गुरूक्तयः / प्रान्ते पुनर्गुणकृतः क्वाथवत् ज्वरिणां नृणाम् // 4 // 255 // गुरूपदेशबाह्या ये स्वैराचारा निरङ्कुशाः / वेषान्तरितमेषानां तेषां जन्म निरर्थकम् .. // 4 // 256 // हिता वाचः सुकृतिनामेव कामन्ति कर्णयोः / विशति क्वापि किं कामगवी श्वपचपाटकम् // 4 // 257 // तद्वत्स ! यदहं वच्मि शृणु तत्परमादरात् / अनादृते वृथा वृद्धवाणी वृष्टिरिवोषरे // 4 // 258 // वत्स ! स्वच्छमते ! तुच्छपत्नीप्रेरणया प्रियः / आवयोरकरोद्यत्तत्प्रजल्पोपि त्रपाकरः // 4 / 259 // 199 // 4 // 254 //