________________ स्थानं प्रायः पुरस्यान्तर्दृष्टिः पीयूषवर्षिणी। . अष्टाग्रशतसीमानः प्रासादे मण्डपाः पुनः // 4 // 236 // भूषा सुवर्णमाणिक्यैः पूजा सत्पुष्पपल्लवैः / धूपनं काकतुण्डद्यैः काश्मीराद्यैविलेपनम् // 4 // 237 // पार्षद्यौर्विकथावैरहास्यवैकृतवर्जनम् / तस्य प्राप्तं परां कोटिं वदन्ति प्राभवें स्फुटम् // 4 // 238 // खाद्यवाद्यसमिल्लास्यरसः शेषनृपैः समः / न तेनातिशयः कोऽपि जिने विश्वविलक्षणे // 4 // 239 // हिंसासक्ता रतासक्ता ये ते सन्तु तदाश्रिताः। समाधिध्यानधौतानां वीतरागः पुनः प्रियः // 4 / 240 // अन्धो यथा विलगितः पथि यत्र धूर्तेस्तस्य स्वरूपमविदन्नपि तेन याति तद्वद्यदि प्रवरीवर्ति विचारवन्ध्यम् सल्लोचनीऽपि तदसौ खलु दैवदोषः सम्यग्देवमवज्ञाय कः कुदेवं निषेवते। सति क्षीराम्बुराशौ न स्नाति क्षारोदधौ सुधीः . // 4 / 242 // तत्रोपतिष्ठमानं तन्मां नोपालब्धुमर्हथ / भवादृशैर्न वञ्च्येऽहं पौरवद् ग्राम्यवाणिजैः // 4 // 243 // इति वाचैव तान् जित्वा विवेको नगरेऽविशत् / साधूनामाश्रये तस्थौ निवृत्तिस्तत्र निर्भयम् // 4 // 244 // अलक्ष्यं गूढसञ्चाराद्गुप्तीभूयान्तरान्तरा / पत्नीस्नेहेन तत्रैत्य निवृत्तेरमिलन्मनः // 4 // 245 // त्वं जिह्मासि प्रवृत्तिस्तु प्रकृत्या पाटवाञ्चिता / ततस्तत्रादरो भूयान्मम त्वमपि पन्यसि // 4 // 246 // यद्यदारप्स्यते कर्म नवं तव तनूद्भवः / तत्र तत्राशुचारित्वान्मया साक्षी भविष्यते // 4 // 247 // 198