________________ सुरासुरनृतिर्यञ्चो वाचः श्रवणलालसाः। . जातिवैरं समुत्सृज्य निविशन्तेऽस्य पर्षदि // 4 // 168 // गतागतं वितन्वानेऽमत्यौघे तन्निनंसया / मार्गेरास्वर्गमाश्वभ्रं जातु शून्यैर्न भूयते // 4169 // धर्मचक्रं पुरस्तस्य रविबिम्बमिवाम्बरे / नायकान्तरदान्धकारध्वंसाय भासते // 4 / 170 // चलच्चेलान्तरतयाग्रतस्तस्य हरिध्वजः / विजिगीषागतद्वेषिचक्रस्याकम्पसूचकः - // 4 // 171 // दुन्दुभिध्वानगन्धाम्बुवृष्टिपुष्पोत्करादयः / / सर्वेऽप्यतिशयास्तस्यापरैः स्वप्नेऽपि दुर्लभाः // 4 // 172 // ईतिदुर्भिक्षरोगाग्निग्रहविग्रहजव्यथाः / सिंहेनेव शिवास्तेनाकान्ते क्षेत्रे विशन्ति न // 4 // 173 // विलसत्केवलज्ञानः स हि कारुण्यसागरः / अत एव जगत्पीडां वेत्तुं भेत्तुमसौ प्रभुः . // 4 // 174 // सेवेत स्थिरचित्तस्तं जामाता यदि यत्नतः / अचिरात्तद्विषो हत्वा नन्वयं राज्यमाप्नुयात् // 4.175 // इमां निशम्य सम्यक् तद्वाचमुद्भूतकौतुका / निरस्ताशेषसन्देहा निवृत्तिः प्राप निर्वृतिम् // 4 // 176 // सुतेन सवधूकेन सहिता सुहिताशया / पुरं तदासादयितुं दयिता मनसोऽचलत् // 4 // 177 // तत्र पाखण्डिनोऽद्राक्षीत् पुरस्योपान्तवासिनः / नृशंसान् दाम्भिकान् लुब्धान् पल्वलस्य बकानिव // 4178 // जिनं यातो जनस्यासद्वाक्पप्रञ्चेन रोधनम् / व्याधानामिव कूटेन रङ्कोस्तेषामधिक्रिया // 4179 // 12