________________ // 4 // 156 // // 4 // 157 // // 4 // 158 // // 4 // 159 // // 4 // 160 // / / 4 / 161 // आकर्णय महाभागे ! संपदो विपदोऽपि च / महतामेव जायन्ते विधोवृद्धिक्षयाविव हेतिघाता रणे हेमभूषा राजगृहाङ्गणे / जात्यावेष्वेव जायन्ते न खरेषु महत्स्वपि त्यजन्ति सहजं धैर्य नापद्यपि महाशयाः / महावाताभिघातेऽपि न चलत्यमराचलः आपदो नावतिष्टन्ते चिरं सुकृतशालिनाम् / राहुवक्त्रगतोऽपीन्दुः सद्वृत्तः किं न मुच्यते सर्वासामापदामापदात्मजस्ते परं तटम् / . अथ प्रथिष्यते पुण्यैरेव स्वैरयमन्वहम् अत्र प्रवचनाभिख्ये नगरेऽस्ति नरेश्वरः। . अर्हन्नवार्यदोर्वीर्यनिर्जितान्तर्द्विषद्बलः आस्तां भुक्तिर्यत्प्रसादान्मुक्तिरप्यदवीयसी / / तत्तस्य साम्ये कल्पगुरपि हीनोपमास्पदम् तस्य छत्रत्रयं मूर्ध्नि त्रिलोकैश्वर्यसूचकम् / प्रियमाणं जगत्साक्षि केनापि न निवार्यते यत्र सालत्रये तस्य वासः स्वर्णमणीमये / शतांशेनापि तच्छाया नापि सौधैः सुधाभुजाम् पृथ्व्यां पर्यटतस्तस्य स्वर्णाब्जानि पदोरधः / : अकस्मापतिष्ठन्तेऽध:कृतानीव शोभया तस्मिन् सिंहासनासीने प्रोच्चैः कङ्केल्लिपादपः / नित्यं प्रकुंरुते छायां कालवेदीव सेवकः स्वाम्यमेकैकशो येषां मूलमांश्चर्यभूरुहः / पीन्द्राद्याः पुरस्तस्यानङ्ककिङ्करसन्निभाः 191 // 4 // 162 // // 4 // 163 // // 4 / 164 // // 4 / 165 // // 4 / 166 // // 4 // 167 //