________________ // 4 // 180 // // 4 / 181 // // 4 // 182 // // 4 / 183 // // 4 / 184 // // 4 // 185 // चित्रामिवाऽर्कं तां पत्नी सम्प्राप्याधिकभास्वरम् / विवेकं ते वंशीकर्तुमेवं वाचो वितेनिरे / एह्येहि वत्स ! विच्छायमाननं मा कृथा वृथा / वयं त्वामुद्धरिष्यामः क्षामताङ्गे न भाति ते क्व यासि पुरतस्तत्राधिकं किं त्वमवाप्स्यसि / श्रुत्यैवार्हन्नसौ रम्यः सेवितो वैभवच्छिदे तुष्टः किंचिन दत्तेऽसौ रुष्टो वा नाच्छिनत्त्यपि / आकारमात्रपुंसोऽस्य बलं श्रद्धेहि वार्तया इह देवाः प्रवीणेन स्तुत्या हरिहरादयः / सर्गपालनसंहारा यदायत्ता जगत्त्रये प्राभवं ददते तुष्टा रुष्टा एते हरन्त्यपि / भक्त्यभक्त्योः फलं साक्षात्पश्यन्नेतेषु मा मुहः धनुर्वेद कामतत्त्वं वैद्यकं ज्योतिषं तथा / . भाषमाणा अमी लोके चिन्तका न पुनर्जिनाः लीलया ददते मुक्तिममी कष्टैः पुनर्जिनाः / मनीषी सुखसाध्येऽर्थे व्यर्थं कष्टं करोति कः खाद्यवाद्यसमिल्लास्यहास्यगीतकथारसः / न यत्र नायके तत्र पशुत्वपिशुना रतिः स्वार्थेऽपि यस्यौदासीन्यं तस्माद्या लाभकल्पना / सा नभःकुसुमैः स्वीयशिरःशेखरसूत्रणा एतद्भक्तं जगत्सर्वं स्तौकका आर्हताः पुनः / महाजनो येन गतः स पन्थाः श्रीयते न किम् श्रुत्वेति सोऽपि सिंहौजाः फेरवानिच कद्वदान् / सेवार्थी जयतां पत्युः प्रत्युत्तरयति स्म तान् 193 // 4 // 186 // // 4 // 187 // // 4 / 188 // // 4 / 189 // // 4 // 190 // // 4 / 191 //