________________ // 4120 // // 4121 // // 4 // 122 // // 4 // 123 // // 4 // 124 // // 4 // 125 // ते सर्वे मोहराजस्य वयस्यत्वं गता इति / . दूरे त्यक्तास्तया वैरिपक्षपात्यपि वैरिवत् एवं भ्रमं भ्रमं भूरिश्रमा विश्रामकाङ्क्षिणी / पुरं प्रवचनं प्राप दुष्प्रापं सा दुरात्मनाम् यस्मिन् सुचारुचारित्रप्रासादोपरिवर्तिनः / शमयन्ति श्रमं दृष्टा अपि धर्मध्वजा नृणाम् / सद्भिः पुण्याशयैर्यत्रोपदेशव्यपदेशतः / असत्कर्मश्वपाकस्य प्रवेशोऽन्तनिवार्यते / वसन्ति साधवो मध्ये बहिः सम्यग्दृशः पुनः / यत्र ते यैः समं सख्यमभिलष्यन्ति वासवाः यद्वासिनो जना नित्यं भुञ्जानास्तात्त्विकं सुखम् / न मन्यन्ते तृणायापि सविकल्पसुखं दिवम् या श्रुतापि महासौख्यं दत्ते देहिषु सा यतः / न दुर्लभा मुक्तिपुरी शासनादिव शेवधिः तत्राक्षदमनं नाम वनं शैत्यनिबन्धनम् / अदृश्यतोचितस्थानलाभचिन्तार्तया तया यत्र साध्वास्यकुण्डोत्थं श्रुतिसारणिसंगतम् / भूरिभ्रमणखिन्नानां शं दत्तेऽर्हद्वचोऽमृतम् धर्मश्रुतिलतोद्भूतसूक्तपुष्पार्थसन्मधु / पीत्वा योगिमनोभृङ्गाः सरङ्गा यत्र जज्ञिरे सा वने पावने तत्र विश्राम्यन्ती श्रमच्छिदे / पुरस्त्रिभूमिकोत्तुङ्गयोगप्रासादवासिनम् स्निग्धगम्भीरहक्पातपातकवातनाशनम् / मृदुप्रदीप्तया मूर्त्या वदन्तं स्वमलौकिकम् 188 .. // 4 // 126 // // 4 / 127 // // 4 // 128 // // 4129 // // 4 // 130 // || 4|131 //